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भरतेश वैभव
नगरके बाहर खड़े होकर अकंपन व मेघेश्वरको भयसूचक खलीता लिखकर भेजा। उसमें अर्ककीर्तिके नामसे लिखा गया था कि परम सुन्दर वह कन्यारत्न मेरे सेवकके लिए योग्य नहीं है । उसकी प्राप्ति मुझे होनी चाहिए । उस पत्रको बाँचकर सब लोग आश्चर्यचकित हुए। मेघेश्वर विचार करने लगा कि अर्ककीर्ति मेरा स्वामी है । मैं उसका सेवक हूँ। ऐसी अवस्थामें मेरा अपमान करना क्या उसका धर्म है ? इस प्रकारके विचारसे पत्रोत्तर भेजनेकी तैयारीमें था, इतने में उद्दडमति मंत्री आया व कहने लगा कि युवराजने यह भी कहा है कि हाथी, घोड़ा, कन्या, आदियोंमें जो उत्तम रत्न हैं, मेरे लिए मिलने चाहिए । वह तुम्हारे लिए कैसे मिल सकते हैं । तुम्हारे घरकी स्त्रियोंकी मांगनी नहीं की, कदाचित् अभिमानसे यह कह रहा हूँ ऐसा मत समझो ।
मेधेश्वर दंग रह गया । पुनः उसने पूछा कि युवराजने और क्या कहा है ? उइंडमसिने कहा कि पाणिग्रहण विधान होनेके पहिले मैं तुम्हें सूचना दे रहा है। वह तुम्हारी स्त्री नहीं बनी है। ऐसो अबस्थामें उसे लाकर मुझे सौंप देना तुम्हारा कर्तव्य है, अन्यथा युद्धको तैयारी करो। ____ अन्तिम शब्दको सुनकर मेघेश्वरको दुःख हुआ | विचारमें पड़ा कि अपनी पत्नीको देकर मैं कैसे जी सकता हूं? अपने स्वामीके साथ युद्ध भी कैसे कर सकता हूँ ? इसे पकड़ भी नहीं सकता। छोड़ भी नहीं सकता।
अब क्या करना चाहिये । बड़ा ही विकट प्रसंग है । ____ अपने हायमें स्थित पलीको में दूसरोंको दूं तो मेरे लिए धिक्कार हो। मैं क्या मलेपाली या तुट्टव हैं? मैं कल मछौंपर हाथ रखकर कैसे बात कर सकता है ? राजा जबर्दस्ती अपनी पल्लीको ले जा रहा है, इससे रोते हुए मैं भाग जाऊं तो क्या मैं बनिया हूँ, ब्राह्मण हूँ या किसान हूँ? क्या बात है ? मेरा सर्वस्व हरण हुआ तो हर्ज नहीं, सुलोचनाको नहीं दे सकता । मूर्ति ( बारीर ) का नाश होना बुरी बात नहीं है, परन्तु कोतिका नाश होना अत्यन्त बुरी बात है। इस कन्याके लिए मेरा प्राण जाए, परन्तु अब कोसिके लिए हो मरूंगा, इस विचारसे धैर्य के साथ सम्राट्के पुत्रका सामना करनेके लिए तैयार हुआ।
काशीके राजा अकंपन जयकुमारके साथ मिलकर अर्ककीतिको बोरसे आये हुए राजामोंके साथ युद्ध करनेके लिए तैयार हुमा। युद्ध सन्नाहभेरी बजाई गई । अष्टचंद्र व अन्य राजाओंको मालूम हुआ कि जयकुमार मुख सन्नब हुआ, वे अधिक क्रोषित हुए व मुखके लिए अपनी