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भरतेश वैभव
४३७ होते हुए भी मुझपर आप लोगोंका प्रेम है। नहीं तो आप लोग मेरे साथ क्यों आते ? कुछ लोगोंने कन्याप्रदान किया, कुछने हाथी, घोड़ा, रथ आदि भेंटमें दिया। यह सब किसलिए ? क्षत्रिय कुलके स्वाभि. मानसे आप लोगोंने मेरा सन्मान किया है । पुण्यमात्र मुझमें थोड़ा अधिक है। नहीं तो उत्तम क्षत्रियकुलमें प्रसूत आप और हममें क्या अन्तर है ? व्यंतरोंने भी हमारे प्रति प्रेमसे जो सहयोग दिया, उसका मैं क्या वर्णन करूँ ? उन्होंने मुझे मंतुष्ट किया। वे मेरे हितैषी बंधु हैं। आप लोगोंको बड़ा कष्ट हआ। इसलिए अब अपने-अपने नगरमें जावे । मैं जब बुलाऊँ आवे या आप लोगों को जब इच्छा हो तब आकर जायें।
इस प्रकार अनन्यबंधुत्वसे सम्राट् जिस समय बोल रहे थे समस्त राजाओंको बड़ा ही आनन्द हो रहा था। भक्तिप्रबंधसे उन्होंने निम्न प्रकार निवेदन किया।।
स्वामिन् ! आपके साथ रहना तो हम लोगोंको बड़ा आनंददायक था, हमें कोई कष्ट नहीं हुआ। अब हम जायेंगे तो हमें बड़ा कष्ट होगा । देव ! हम लोग आपको क्या दे सकते हैं ? यदि पुजारीने लाकर भगवंतके चरणोंमें एक फूलको अर्पण किया तो क्या वह पुजारीकी मेहरबानी का भगवाकी महिमा है ! जय भंडारा जिस प्रकार आपकी जरूरतको समझकर समयमें आपको कोई पदार्थ देता है, उसी प्रकार हम लोगोंने आपकी चीज आपको दी, इममें बड़ी बात क्या हुई? सार्वभौम! कलचर मोती कभी अमल मोतीकी बराबरी कर सकता है ? कभी नहीं। क्षत्रियकुलमें उत्पन्न होनेमात्रसे हम आपकी बराबरी कर सकते हैं ? यह मन आपकी दया है। परमात्मवेदी । आपकी पादसेवा करने का भाग्य धन्यजनांको ही मिल सकता है। सबको क्योंकर मिलेगा ? नरलोकम रहने पर भी सुरलोकले. सुम्बका हमने अनुभव किया। रोज विवाह, रोज सत्कार, रोज विनोद, सर्वत्र आनंद ही आनंद । जाने के लिए पैर हमारा साथ नहीं दे रहा है। तथापि जाने के लिए जो आज्ञा हुई है उसका उल्लंघन कैसे कर सकते हैं ? इसलिए अब हम जाते हैं। इस प्रकार कहते हुए सब राजाओंने साष्टांग नमस्कार किया व सब वहांस जाने लगे। उस समय सुकण्ठ व वनकंठ नामक वेत्रधारियोंने खड़े होकर सबका परिचय कराया। इक्षुचापाग्रज ! बोधेक्षण ! चित्तावधन ! यह दक्षिणसमुद्रके अधिपति वरतनु सुरकीति जा रहे हैं, देखो! समुद्रको भी तिरस्कृत करनेवाले गांभीर्यको धारण करनेवाला यह पश्चिम समुद्रके अधिपति प्रभासेंद्र