SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 447
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३२ भरतेश वैभव के पास गये। वहाँ थोड़ा दुःख व्यवहार होकर फिर शांत हुआ। तदनंतर स्नान,देवपूजन आदि होनेके बाद सब लोगोंने मिलकर पारणा की। इधर सेनामें शांति स्थापित हुई। इधर बाहुबलिकी रानियाँ भगवान् आदिनाथके दर्शनकर अजिकाकी दीक्षासे दीक्षित हुईं। देवगति विचित्र है। भरतेश्वरने भरसक प्रयल किया कि अपने भाईके मन में कोई क्षोभ उत्पन्न न हो, और वह दीक्षा लेकर न जावें परन्तु कितने ही प्रयत्न करनेपर भी वह न रुक सका। भाई बाहुबलि चला गया। उसकी हजारों रानियां भी दीक्षा लेकर चली गई। इससे सर्वत्र हाहाकार मच गया । भरतेश्वरको भी मनमें बड़ा दुःख हुआ कि इन सबका कारण मैं हूँ। राज्यके कारणसे मैंने इन सबको रुलाया। इत्यादि कारणसे उन्होंने मन में बहुत ही अधिक दुःखका अनुभव किया। साथ ही विवेकी होनेके कारण उस दुःखकी शान्तिका भी उपाय सोचा । तीन दिनतक उपवास रहकर आत्मनिरीक्षण किया। उस तपोबलसे सर्वत्र शांति हुई। परमात्माका दर्शन दुःखामनके लिए अमोघ उपाय है, भरतेश्वर सदा इसीका अवलंबन करते हैं । वे भावना करते हैं कि-"हे परमात्मन् ! मेरु पर्वतपर चढ़कर मेदिनीको देखनेके समान ध्यानारूढ़ होकर लोकको देखनेका सामर्थ्य तुममें है। हे सुखघीर ! मेरे हृदयमें बने रहो हे सिद्धात्मन् ! लोकमें समस्त जीव कर्मके आधीन होकर वह जैसे नचाता है वैसे नाचते हैं, परन्तु निष्कर्म स्वामिन् ! आप उनको रागद्वेषरहित दृष्टिसे देखते हैं । अतएव निर्मल आनन्दका अनुभव करते हैं। इसलिये मुझे भी सन्मति प्रदान कीजिये।" इसी भावनाके फलसे भरतेश्वर अनेक दुःख-संकटोंसे पार होते हैं । इति चित्तनिवेगसंधि -- -- अथ नगरीप्रवेशसंथि भरतेश्वरकी छोटी मां सुनंदादेवी दीक्षाके लिए उद्युक्त हुई । सब भरतेश्वरने निवेदन किया कि बाहुबलिके पुत्रोंके बड़े होने तक ठहरना चाहिये । बादमें विचार करेंगे । भरतेश्वरने कहा कि माताजी ! क्या बाहुबलि ही आपके लिये बेटा है ? मैं पुत्र नहीं हूँ ? इसलिए कुछ
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy