SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 434
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भरतेश वैभव ४१९ प्रभासेंद्र आदि व्यन्तरमुख्योंने नस्कार किया। बाहुबलि लज्जासे इधर उधर देखने लगे। दोनों ओरके राजा, मंत्री मित्रोंने एवं पुत्रोंने बाहुबलि को नमस्कार किया तो बाहुबलिने बिचार किया कि हाय ! अपयशका पर्वत ही आकर खड़ा हो गया । क्या करूँ ? अब सेनाकी ओर देखना बंद करके नीचे मुंहकर खड़े हो गये । मनमें विचार करने लगे कि अच भैयासे अपने मनकी बात साफ-साफ कह देना चाहिये। पाठकोंको इस प्रकरणको देखकर कर्मकी विचित्र गतिपर आश्चर्य हुए विना नहीं रह सकता है । होनहार प्रबल है, उसे कौन टाल सकता है। भरतेश्वरने कितने ही प्रकारसे प्रयत्न किया कि भाईके चित्तमें कोई क्षोभ न होकर अपना कार्य हो जाय । वे पहिलेसे चाहते थे कि दूसरे सहोदर जिस प्रकार गये उस प्रकार यह भी नहीं चला जाए । अतएव कार्यो कुशल चतुर दक्षिणांकको ही उसं कार्यके लिए भेजा। उसने खूब प्रयल किया, सब व्यर्थ गया। मंत्रीमित्रोंने हरतरह विनय व अनुनयसे प्रार्थना की। वह भी ठुकरा दी गई। माताने बहुत ही हृदयंगम उपदेश किया । उनको भी धोखा दिया । ८ हजार स्त्रियोंकी प्रार्थना व्यर्थ गई । अर्ककीर्ति आदि पुत्रोंको दर्शन भी नहीं मिल सका । अनेक अपशकुन होनेपर भी अवहेलना की गई। मानकषाय प्रबल है। वह बड़े-बड़े मोक्षगामियोंको भी तत्व-विचारसे विमुख कर देता है। उस गर्वपर्वत पर चढ़ने के बाद अपना सगा भाई भी शत्रुके रूपमें दिखने लगता है। हितैषी माता भी अहित करनेवालेके समान दिखती है। कषाय बहुत बुरी चीज है । उसने भाईको साथमें युद्धसन्नद्ध खड़ा कर दिया। युद्धका निश्चय हुआ । उसमें भी तीन धर्मयुद्धका निश्चय हुआ। युद्ध प्रत्यक्ष न होनेपर भी भरतेश्वरने अपने सहोदरके मनको शान्त कारनेके लिए अपनी हार बताई और चक्ररत्नको बाहुबलिकी सेवामें जानेके लिए धक्का दिया। यह प्रसंग ग्रंथांतरोंके कथनसे व्यत्यस्त होनेपर भी ग्रंथकारने इसे बड़ी खूबीके साथ वर्णन किया है । समन्वय दष्टि से विचार करनेपर यह भेद बिरुद्ध नहीं दिखेगा। कदाचित् स्थूलदृष्टिसे विरोध दिखे तो भी ग्रंथकारके हृदय में स्थित भरतराजर्षिकी भक्ति ही इस कथनके लिये कारण है, और कुछ नहीं। एक तरफ बाहुबलिका इतना कठोर व्यवहार ! दूसरी ओर भरतेश्वरकी मर्यादातीत कोमलनीति ! यह दोनों बातें देखने व विचार करने लायक हैं। भरतेश्वरने अपने व्यवहारसे सिद्ध कर दिया कि कठिनसे कठिन
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy