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भरतेश वैभव गई। बाहुबलिने मनमें विचार किया कि सचमुच में मैंने यह अच्छा विचार नहीं किया है, भाईके प्रति इस प्रकार द्रोहविचार नहीं करना चाहिए था। बाहवलिने अभीतक सन्मूख होकर भरतेश्वरको नहीं देखा था । भरतेश्वरने पुनः बाहुबलिको प्रसन्न करनेके लिए कहा .
भाई ! सुनो, मैंने इस चक्ररत्नकी अभिलाषा नहीं की थी, आयुधशालामें वह अपने आप उत्पन्न होकर उसने मुझे सारे देशमें भ्रमण कराया व आप लोगोंके हृदयको दुखाया । मैं इन सब संपत्तियोंको पुण्यकार्म के फल जानकर उदासीनभावसे देख रहा हूँ, मुझे बिलकुल लोभ नहीं । तुम इनको स्वीकार करो । तुम ही राजा हो। तुम राजा होकर अपने राज्यमें रहो, मैं तुम्हारे अधीनस्थ राजा होकर तुम्हारे लिए हूँ, तुम्हारे दिग्विजयके लिए गया और समस्त षट्म्लंडको वशमें करके आया लो, यह सब राज्य, सेना वगैरह तुम्हारे ही हैं । ये सब राजा तुम्हारे हैं। तुम्हारा मैं भाई हूँ इसका विचार नहीं, परन्तु तुम मेरे भाई हो इसका विचार मुझे है, इसलिए भाईके भाग्यको आँखभरके देखकर मैं संतष्ट होऊँगा । इस राज्यपदको स्वीकार करी । अयोध्या में तुम सुखसे राज्य करो, मुझे एक छोटासा राज्य देकर सुखसे अलग रखो । यह मैं दुःखके साथ नहीं बोल रहा हूँ, पुरुपरमेशके चरणकी शपथ है। मुझे अगणित सेवकों की जरूरत नहीं। मेरे कामके लायक परिवार व सेवकोंकी व्यवस्था कर मुझे अलग रखो। तुम्हारे मनको प्रसन्न करनेके लिये यह मैं नहीं बोल रहा हूँ, इसके लिए निरंजन सिद्ध ही साथ है। कंजास्त्र ! भाई, इससे अधिक बोलने की मेरी इच्छा नहीं, स्वीकार करो इस राज्यको ! "बाहुबलि ! परित्याग करो !' भरतेश्वर भाईको शान्त करनेके लिए कह रहे थे ।
बाहुबलि भी मन में ही लज्जित होने लगा। अव सीधा खड़े होकर भरतेश्वकी ओर देखनेके लिए भी उसे संकोच हो रहा था । पुनः भरतेश्वरने उस चकरलको बुलाकर कहा कि चक्ररत्न ! जाओ, अब तुम्हारी मुझे जरूरत नहीं, तुम्हारा अधिपति यह बाहुबलि है, उसके पास जाओ । इस प्रकार भरतेश्वरके कहनेपर भी वह आगे नहीं बढ़ा, क्योंकि उसे धारण करनेका पुण्य बाहुबलिको नहीं था। भरतेश्वरको छोड़कर जानेतक भरतेश्वर भी हीनपुण्य नहीं थे। अतएव बुलाते ही भरतेश्वरके सामने आकर खड़ा हुआ। आगे नहीं गया। भरतेश्वरको पुनः सहन नहीं हुआ। फिर भी क्रोधसे कहने लगे कि अरे चक्रपिशाच ! मैं अपने भाई के पास जानेके लिए बोलता हूँ, तो भी