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भरतेश वैभव कर सोने को ले गये। सबको यथोचित सत्कारके साथ रवाना कर स्वतः सम्राट् महलकी ओर चले गये। ___ महलमें रानियाँ आनन्दसागरमें मग्न हुई हैं। उनके हर्षको हम वर्णन नहीं कर सकते । आनन्दकी सूचना देने के लिये हाथमें आरती लेकर भरलेश्वरका स्वागत करने लगी व अनेक भेंट चरणों में रखकर नमस्कार किया। पट्टरानीने नमस्कार करते हुए कहा कि स्वामिन् ! मठे ही रोगसे हमारी सारी सेनाको आपने हैरान कर दिया । धन्य हैं ! अपनी स्त्रियोंको साथ में लेकर भरतेश्वर अपनी मातुश्रीके पास आये व उनके चरणोंमें मस्तक रखा। माताने आशीर्वाद देते हुए कहा कि मेरे बेटेको मायाका रोग उत्पन्न हुआ। बेटा ! तुम्हें कभी रोग न आवे । इतना ही नहीं, तुम्हें जो याद करते हैं उनको भी कभी रोग न आवे । इस प्रकार आशीर्वाद देकर माताने मोतीके तिलकको लगाया । भरतेश्वरने भी भक्तिसे नमस्कार कर तथास्तु कहा। तदनंतर सबके सब आनन्दसे भोजनके लिये चले गये।
पाठकोंको आश्चर्य होगा कि भरतश्वरकी छोटीसी उँगलीमें इस प्रकारकी शक्ति कहाँसे आई। असंख्य सेना भी उनकी एक उँगलीके बराबर नहीं है । तब उनके शरीरमें कितना सामर्थ्य होगा? इसका क्या कारण है ? यह सब उनके पूर्वोपार्जित पुण्यका ही फल है। वे उस परमात्माका सदा स्मरण करते हैं जो अनंतशक्तिसे संयुक्त है। फिर उनको इस प्रकार की शक्ति प्राप्त हो इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ! उनका सदा चिन्तवन है__ हे परमात्मन् ! तीन लोकको इधर-उधर हिलानेका सामर्थ्य तुझमें मौजूद है। वह वास्तविक व अनन्त सामर्थ्य है। तुम अजरामररूप हो, आनन्दध्वज हो, इसलिए मेरे हृदयमें सदा बने रहो ।
हे सिद्धात्मन ! तुम बुद्धिमानोंके नाथ हो, विवेकियोंके स्वामी हो, प्रौढोंके प्राणवल्लभ हो, बाक्यपुष्पबाण हो, इसलिए मोतीके समान सुन्दर व शुभ्र वचनोंको प्रदान करो एवं मुझे सन्मति प्रदान करो।
इसी भावनाका फल है कि भरतेश्वरको लोकातिशायी सामर्थ्यकी प्राप्ति हुई है।
इति कटकविमोबसन्धि
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