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________________ ३९४ भरतेश वैभव मंत्री-मित्रोंने विचार किया कि बाहुबलिके मंत्री-मित्र बगैरह सभी भरतेश्वरके साथ हैं। इसलिए एक आदमी भेजकर देखू कि क्या बाहुबलिके विचारमें कुछ परिवर्तन होता है या नहीं। तदनंतर भरतेश्वरदे इक्षिणांकको बुलाकर उसे अनेक उत्तमोतम रत्न व वस्त्राभूषणोंको भेंट देना चाहा । परन्तु दक्षिणने कहा कि स्वामिन् ! मैंने बड़ी सेवा की ! वाह ! मुझे जरूर भेट मिलना चाहिये ! जाने दीजिये ! मैं नहीं लंगा। भरतेश्वरने कहा कि वह नहीं आया तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है ? तुम्हारे प्रयत्नमें क्या कमी हुई ? इसलिए तुम्हारे बिवेकका आदर करना मेरा कर्तव्य है। आओ! रात्रिदिन अपन आनंदसे व्यतीत करें। दक्षिणांकने स्वीकार नहीं किया । फिर भरतेश्वरने वहाँ उपस्थित अन्य मंत्री-मित्रोंको बुलाकर भेंट दिये। बादमें दक्षिणांकको बुलाकर कहा अब तो लो। तब निरुपाय होकर दक्षिणांकने ले लिया। भरतेश्वरने उसकी पीठ ठोककर कहा तुमसे मुझे कोई अप्रसन्नता नहीं है । तुम दुःख मत करो। तब दक्षिणांकने कहा कि स्वामिन् मुझे स्वप्न में भी दुःख नहीं है । आपके चरणोंके शरणको पाकर किसे दुःख हो सकता है ? चक्रवर्ती सबको विदाकर स्वयं महलकी ओर चले गये । इधर मंत्री व मित्रोंने विचार किया कि सभी राजा व मंत्री सेनापति वगैरह बाहुबलिके पास जाकर भेंट वगैरह समर्पण कर उसे इधर ले आयेंगे। उस विचारसे उन्होंने बाहुबलिके पास एक दूतको भेजा, दूत जव पोदनपुरके दरवाजेपर पहुँचा उस समय दरबानने उसे रोका । भरतेशके किसी भी मनुष्यको अंदर जानेकी आज्ञा नहीं है । वह दूत वहींसे लौटकर आया। जब वह समाचार मिला तो मंत्री आदिको बड़ी निराशा हुई। सम्रा Ke R.. . -5.... wwporn. Karina मद चढ़ गया है। इस समाचारसे अप्रसन्नता व्यक्त करत हुए 4 मा अस्ताचलपर चल गया। सर्वत्र अंधकार छा गया। शय्यागहमें सुखनिद्राके बाद रात्रिके तीसरे प्रहरमें भरतेश्वर उठकर परमात्मयोगमें लीन थे। इतने में एक सरस घटना हुई। सर्वत्र निस्तब्धता छाई हुई है। वृक्षका एक पत्ता भी हिल नहीं रहा है। सरंगरहित समुद्र के समान विशालसेनाकी हालत हो रही है। सबके सब निद्रादेवीकी गोदमें विश्रांति ले रहे थे। तब सेनाके किसी कोनेमें दो व्यक्ति आपसमें बातचीत कर रहे थे, वे दोनों साले-बहनोई थे । उनको किसी कारणसे नींद नहीं आ रही थी। अतएव उन्होंने
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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