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भरतेश वैभव
३५७ जरूरी है। फिर चार दिन आनन्दले संसारके भोगोंको भोगकर फिर आयें | बेटा ! जरा विचार तो करो। तुम लोगोंने अभी हमारे नगरको भी नहीं देखा। हमारी मातुश्रीने तुम्हारे विनोदपूर्ण व्यवहारको भी नहीं देखा । ऐसी हालत में तुम्हारा जाना क्या उचित है ? तुम्हारे ओंने अभी तुमको देखा ही नहीं है। सबकी इच्छाकी पूर्ति कर बाद में जाइयेगा । मैं तुम लोगों को बहुत सन्मानके साथ भेज दूंगा । चिन्ता क्यों करते हो ? कुछ दिन रह जाओ ।
काका
पुत्र स्वामिन्! दीक्षा लेनेकी इच्छा क्या बार-बार होती है ? संसारकी संपत्तियों फँसने बाद मनुष्टचितकी होती है, कौन कह सकते हैं ? इसलिये हमारी प्रार्थना है कि हमे किसी भी प्रकार रोकना नहीं चाहिये | आप अनुमति दीजिये । पिताजी ! हमारी दादी, काका, नगरी वगैरहको इस चर्मदृष्टिसे देखनेके लिये क्यों कहते हैं ? हम तपञ्चर्याके बलसे अनन्त ज्ञानको प्राप्त कर उनको ज्ञानदृष्टिसे एक साथ देखेंगे । इसलिये हमें अवश्य जानेकी अनुमति दीजियेगा ।
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भरत - बेटा ! पुनः पुनः उसी बातको कहकर मुझे दुःखित करना तुम्हारा धर्म नहीं है । अतः इस विषयको छोड़ो। तपस्याकी बात हो मत करो ।
पुत्र - पिताजी! आपको इस प्रकार दुःखित होनेकी क्या आवश्यकता हैं ? क्या हम लोगोंने कोई दुष्ट कार्यका विचार किया है ? कोई नीच काम करनेका संकल्प किया है ? फिर आप क्यों दुःखी होते हैं व हमें क्यों रोक रहे हैं ? आपको तो उलटा कहना चाहिये कि बेटा ! आप लोगोंने अच्छा विचार प्रशस्त किया है। जाओ तुम लोगोंको जय मिले । परंतु आप तो हमें रोक रहे हैं। हमारी प्रार्थना है कि आप इस प्रकार हमें नहीं रोकें । हमें जानेकी अनुमति प्रदान करें । भरतेश्वरने देखा कि अब ये माननेवाले नहीं हैं। अब किसी न किसी उपायसे इनको मनाना चाहिये, इस विचारसे वे कहने लगे। बेटा ! क्या आप लोग दीक्षाके लिये जाना हो चाहते हैं ? कोई हर्ज नहीं जा सकते हैं । परंतु आप लोग एक-एक चीज देकर जाएँ। उत्तरमें उन पुत्रोंने कहा कि पिताजी ! हमारे पास ऐसी कौनसी चीज है जो हम आपको दे सकते हैं ? भरतेश्वरने कहा कि सिर्फ देंगे ऐसा कहो, मैं फिर कहूँगा । तब उन पुत्रोने कहा कि जब कि हम समस्त परिग्रहको छोड़कर दीक्षाके लिये उद्यत हुए हैं। फिर हमें किस बातका मोह है । आप बोलिये। हम देनेके लिये तैयार हैं। भरतेश्वर उनके सामने हाथ पसारकर कहा कि लाओ, एक