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________________ लोकमें देखा जाता है कि किसी सज्जनको १ पुत्र या पुत्री हा तो वह मनुष्य विवाहका समय आनपर चिताग्रस्त हो जाता है। परन्तु पाठकोंको यह देखकर आश्चर्य हुआ होगा कि भरतेश्वरके हजारों पुत्र हजारों पुत्रियोंका विवाह इच्छा करने मात्रसे योग्यरूपसे बहुत शीघ्र संपन्न हुआ, पुण्यात्माओंकी बात ही निराली है। वे जो कुछ सोचते हैं, उसके लिए अनुकूलता ही मिल जाती है। इसके लिए अनेक जन्मो• पार्जित पुण्यकी आवश्यकता होती है। भरतेश्वर सदा इस प्रकारकी मावना अपने अंतःकरणमें करते हैं। उनकी भावना रहती है कि "हे परमात्मन् ! जो सदाकाल शुद्धभावसे तुम्हारी भावना करते रहते हैं, उनको तुम सौख्यपरम्पराओंको ही प्रदान करते हो। इसलिये हे देव ? तुम मेरे अंतरंगमें बने रहो।। हे सिद्धात्मन् ! तुम नित्य मंगलस्वरूप हो ! नित्य श्रृंगार गौरवसे युक्त हो, तुम्हारे अंतरंगमें सदा अनंत आनंदके तरंग उमड़ते रहते हैं। सदा वैभवशाली हो, तुम सौख्यसाहित्य हो ! अतः स्वामिन् ! मुझे सन्मति प्रदान कीजिये। इसी भावनाका फल है कि उन्हें नित्य नये ऐसे मंगल प्रसंगोंके आनंद मिलते रहते हैं। इति पुत्रवंशाह संधि -:: अथ जिनदर्शन संधि अपने पुत्र व पुत्रियोंका विवाह बहुत संभ्रमके साथ करके भरतेश्वर बहुत आनन्दसे अपना समय व्यतीत कर रहे हैं । एक दिनकी बात है । बुद्धिसागर मंत्रीने दरबारमें उपस्थित होकर सम्राटके सामने भेंट रखकर कुछ निवेदन करना चाहा । भरतेश्वरको आश्चर्य हुआ, वे पूछने लगे कि मंत्री! आज क्या कोई विशेष बात है ? उत्तरमें बुद्धिसागरने निवेदन किया कि स्वामिन् ! मेरी प्रार्थनाको सुनें। तीन समुद्रोंके बीच हिमवान् पर्वततकके षट्खंडोंको आपने वीरतासे वशमें किया । वृषभाद्रिपर अंकमालाको अंकित किया । चौदह रत्न सिद्ध हुए, पुत्रोंका विवाह हुआ। अब कोई विशेष कार्य नहीं है। बहुत काल व्यतीत हुए हम लोगोंको आपके साथ रहनेसे कोई भी
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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