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________________ भरतेश वैभव ३०७ इसे स्वीकार नहीं किया । यशोभद्राने कहा कि बेटा ! क्या चक्रवर्ती तुम्हारे घर पर आता है ? उनका बोलना उचित ही था। इसलिए व्यर्थ ही क्यों हठ करते हो? इसमें मुख्याने लिए कोई गाली नहीं है । नमिराज--यदि लड़की की जरूरत हो तो सम्राट्को भी यहाँ आना पड़ेगा। फिर क्या हम अपनी महत्ताको खोकर दे सकते हैं ? कन्याकी देन-लेनमें इस प्रकार चलना उचित नहीं है। यशोमवा-बेटा! षखंडके समस्त राजा सम्राट्के सेवक हैं। फिर सम्राट एकदम अपने घरपर कैसे आ सकते हैं ? यदि अपने लोग ही ले जाकर कन्या दे दें तो इसमें क्या बिगड़ता है ? वह भरत कौन है ? वह खास तुम्हारी मामीका पुत्र है और उसके मामाका पुत्र तुम हो। इसलिये इस प्रकारके को छोड़कर उस मनुवंशतिलकको कन्या दो। नमिराज---माता! मुझे इस बातपर मजबूर मत करो। मार्ग छोड़कर कन्या देनेकी मुझे इच्छा नहीं। यशोभना- क्या यह बात है ? अच्छा ! फिर अपनी बहिनको अपने घरपर रहने दो। मैं अब जाती हूँ। मेरे कलासमें ब्राह्मी, सुन्दरीकी संगति चाहिए। उसीमें मुझे आनंद है। एक बेटीको पाकर मनमै उत्कंठा लगी थी कि भरतेशको देकर कब संतुष्ट होऊँ ? परन्तु अब तुम्हारी इच्छा नहीं है। अब मैं अपने आत्मकार्यको साधन कर लंगी। अब इसके लिए मंजूरी दो। इंद्रको भी तिरस्कृत करनेवाले भरतेश चक्रवर्तीको शची महादेवीके समान सुन्दर पुत्रीको देकर मैं प्रसन्न होना चाहती थी, परन्तु तुम उसे मंजूर नहीं करते। अब तुम संतुष्ट रहो, मैं कैलासकी ओर जाती हैं। नामराज—माता! आपके जानेकी जरूरत नहीं है। आपके भानजेको आप और विनमि मिलकर कन्या प्रदानकर आनंदसे रहें। मैं ही तपोवनके लिये जाता हैं। राजगौरवको भूलकर इस राज्यवैभवमें रहनेकी अपेक्षा जिनदीक्षा लेना हजार गुना श्रेयस्कर है। माताजी ! मैंने मार्ग छोड़कर बात की है ! अच्छा ! मैं ही जाता हूँ। आप लोग आनन्दसे रहें। यशोभद्रा घबरा गई। अतः परिस्थितिको सुधारनेके लिए कहने लगी कि बेटा ! ऐसा क्यों करते हो ! तुम्हारे घरपर चक्रवर्ती नहीं आयेगा। परन्तु सगाई यहाँपर हो जाय तो फिर देनेमें क्या हर्ज है।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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