SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४ भरतेश भव आपकी बहिन आपका दर्शन करना चाहती है। आज्ञा होनी चाहिये । तब चक्रवर्तीने सभी द्विजोंको वहाँसे भेजकर स्वयं महल में प्रविष्ट हुए। वहाँपर अपनी रानियोंके साथ विराजमान हुए । इतने में बहाँपर अनेक देवांगनाओंके परिवारके साथ रत्नाभरणोंसे शृंगारित होकर सिंधुदेवी । सम्राट्के पास आई. उसको देखनेपर वह सचमुच में चक्रवर्तीकी बहिनके समान ही हो रही थी। अपने -चीन भार के एम बह बहिन पहिले ही पहल आ रही थी। अतएव उसे कूछ संकोच हो रहा था। परंतु भरतेश्वरने. बहिन ! भय क्यों ? निस्संकोच आओ। इस प्रकार कहकर उसके संकोचको दूर किया । सिंधुदेवीने पास में जाकर मोतीकी अक्षताओंको समर्पण करते हुए भाई ! चिरकालतक सुखसे जीते रहो, इस प्रकारकी शुभभावना की । साथ ही तुम अविचललीला से षट्खंडराज्यकी संपत्तिको पाकर तुम सुखी हो जाओ। इस प्रकार कहती हुई सिधुदेवीने तिलक लगाया । आकाश और भूमिपर तुम्हारी धवल कीर्ति सर्वत्र फैले । इस प्रकार आशीर्वाद देती हुई अपने भाईको दिव्य वस्त्रको प्रदान किया। इसी प्रकार "कोई भी तुम्हारे सामने आवे उसे अपने वशमें करनेकी वीरता तुममें अक्षय होकर रहे।" इस प्रकार कहकर भाईके हाथमें वीरकंकणका बंधन किया । इसी प्रकार भरतेश्वरको रानियों को भी "आप लोग एक निमिष भी अपने पतिविरहके दुःखको अनुभव न कर चिरकालतक संततिके साथ सुखसे रहो' इस प्रकार आशीर्वाद देते हुए उनको भी देवांगवस्त्रोंको समर्पण किया। आप लोग कभी बुढ़ापेका अनुभव न करें, चिता स्वप्नमें भी आपके पासमें न जाएं। सदा जवानी बनी रहे, इत्यादि आशीर्वाद दिया। उन रानियोंने विनयसे कहा कि हम आपके आशीर्वादको ग्रहण करती हैं, वस्त्रकी आवश्यकता नहीं। परंतु उसी समय भरतेश्वरने कहा कि मेरी बहिनके द्वारा दिये हुए उपहारको ले लेना चाहिये । तिरस्कार करना ठीक नहीं है । तब सब स्त्रियोंने सिंधुदेबीके उपहारको ग्रहण कर लिया। सिंधुदेवी कहने लगी कि देवियों ! मेरे भाईने जब मेरे दिये हुए पदार्थको ग्रहण कर लिया तो आप लोगोंकी बात ही क्या है ? इस प्रकार कहती हुई सब रानियोंको एक-एक रत्नहारको समर्पण किया। इसी प्रकार उन सब रानियोंको तिलक लगाकर सत्कार किया, फिर भरतेश्वरसे कहा कि भाई ! आप लोग आये, हमें बड़ा हर्ष हुआ । अब यहाँपर एक दिन मुक्काम कर आगे आना चाहिये,
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy