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भरतेश वैभव
૨૧૧ वस्त्राभरणोंको देते हुए कहा कि आप लोग दोनों जार्वे और अपने राज्यमें सुखसे रहें। आवर्तककी उद्दण्डताके लिए हमने उसे उचित दण्ड दिया है। अब उसे देख नहीं सकते। माधव ! तुम उसे ले जाओ, अपने राज्यमें उसको कुछ अलग सम्पत्ति देकर उसे रखो। मेरे हृदयमें अब कोई क्रोध नहीं है। आगे समय जानकर आप लोग मेरे पास आ सकते हैं। इस प्रकार उन दोनोंको भेजकर सेनापति जयकुमारसे सम्राट्ने कहा कि मेघेश्वर ! तुम अब पश्चिमखण्डको वशमें करने के लिए जाओ और विजयकुमारको सेनासहित पूर्व खण्डमें जाने दो। भरनेश्वर की आज्ञानुसार वे दोनों चले गये। __इधर विजयार्धदेव जाकर भरथरकी अति जमकर किया व कहने लगे कि स्वामिन् ! आप अद्भुत पुण्यशाली हैं, जहाँ जाते हैं वहीं सभी आकर शरणागत होते हैं । सम्राट्ने बीच में ही बात काटकर कहा कि उसे जाने दो। विजयादेव ! हिमवन्त मेरे पास संतोषके साथ आकर शरणागत होगा या उसे कुछ भयभीत करनेकी आवश्यकता होगी? विजयाधने कहा कि स्वामिन् ! हिमवन्तदेव उग्र स्वभावका नहीं, मैं शीघ्र ही वहाँ जाकर उसे आपके पादमें ले आऊँगा। ऐसा कहकर वह बहाँसे चला गया । इतने में नाटयमाल नामक देव आया । उसने सम्राटको साष्टांग नमस्कार किया। मागधामरने परिचय कराया कि स्वामिन् ! यह खंडप्रताप गुफाके अधिपति नाटयमालदेव हैं। भरलेश्वरने भी उसका सन्मान कर कहा कि अब इसे संतोषसे हमारी सेनामें रहने दो। इस प्रकार सबको संतोषसे भेजकर पुनः दूसरे दिन दरबारम आसीन हुए। ___ गंगादेव और सिन्धुदेव चक्रवौके दर्शनार्थ आये हैं। उन्होंने पहिले आकर मागधामरसे कुछ कहा । मामधामर अपने साथ बरतनु आदि व्यस्तरोंको लेकर चक्रवर्तकि पास गया व वहाँपर चक्रवर्तीके चरणों में साष्टांग नमस्कार किया। सम्राट्को आश्चर्य हुआ कि आज बात क्या है ? मागध ! प्रभास ! बरतनु ! आप लोग इस प्रकार क्यों कर रहे? बात क्या है ? कहो तो सही ! तब मागधने कहा कि स्वामिन् ! हम सेवामें कुछ निवेदन करना चाहते हैं। उसे सुननेकी कृपा होनी चाहिये। आज तो स्वामीके दर्शनके लिये गंगादेव और सिन्धुदेव आ रहे हैं वे ध्यंतरोंके लिये पूज्य हैं । जिनेन्द्र के परमभक्त हैं । आपके प्रति भी उनके हृदयमें पूर्णभक्ति है , इस बातको आप जानते ही हैं। अतएव उनको कुछ आदरपूर्वक आनेकी आशा होनी चाहिए । अर्थात् वे केवल भेंटको