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भरतेश वैभव
विषयमें कहना ही क्या है ? अभी इस भूमण्डलके राजा हैं तो कल स्वर्गके राजा होंगे और परसों मुक्तिसाम्राज्यके अधिपति बनेंगे।
राजन् ! वह आत्मविज्ञानी सम्पत्तिसे मदोन्मत्त न होगा। मानियोंके अधीन न होगा, क्षुद्र हली की बातोंसे सन्तुष्ट न होगा, गम्भीरताहीन बात न करेगा। विशेष : बार मेरु,ईने सगान पमित धैर्यवान् रहेगा। वह इंद्रिय मुग्नोंमें आमक्त न होगा। देवेन्द्रकी सम्पत्ति भी उसकी दृष्टिम तुच्छ रहेगी। इंद्रियोंको अनुभव करते हुए भी वह योगीन्द्रवृत्तिको अधिक कामना करता रहेगा । वह सांसारिक अनेक दुःखों के बीच में रहनेपर भी आत्मानुभवरूपी अमृतके आस्वादसे अपनेको अत्यन्त मुखी मानता है । ___ बार-बार आत्मचितवन करनेसे उनके कर्मोंकी सदा निर्जरा होती रहती हैं। मैं किसी भी तरह इन दुष्ट कर्मोको दूर कर अवश्य मुक्तिको प्राप्त करूंगा यह उमका दढनिश्चय रहता है। सच बात तो यह है कि जो व्यक्ति वार-वार देह और आत्माको भिन्न रूपमें अनुभव कर स्वरूपको भोगता है. उसे कर्मबन्ध नहीं होता। वह तो रोगी होते हुए भी यथार्थ में योगी है। __राजन् ! जमीनमें गढ़े लोहेमें जंग ( मल ) लगता है किन्तु क्या वह सोने में लगता है ? नहीं। इसी प्रकार अविवेकी भोगियोंको तो है। विवेकियोंको क्या कर्मबंध होता है ? दो प्रकारके भोगी होते हैं । एक सकाम भोगी दूसरे निष्काम भोगी। सकाम भोगी कर्मबन्धनसे बद्ध होता है, किन्तु निष्काम भोगीको कर्मबंध नहीं होता है। दग्ध बीज बोए जाने पर क्या अंकुरोत्पत्ति करने में समर्थ हो सकता है ? कभी नहीं। क्योंकि उसकी अंकुरोपत्ति की शक्ति नष्ट हो चुकी है। इसी प्रकार कर्मबंधरूपी अंकुरके लिये बीजरूप रागको यदि पहले ही नष्ट कर दिया जाय, तो फिर उसकी उत्पत्ति कहाँसे होगी ? निष्कामभोगी आत्मविज्ञानीको इन्द्रियविषयोंमें राग नहीं रहता है। अतएव वह कर्माकुरको उत्पन्न नहीं करता है । विकारमय संसार के बीचमें रहनेपर भी उन विकारोंका उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । नागलोकमें वास करनेपर भी क्या गरुड़को सोकी बाधा हो सकती है ? नहीं । इसी प्रकार भोगोंके बीचमें रहते हुए भी आत्मविज्ञानीको उन भोगोंसे कर्मका बन्ध होगा क्या? नहीं। महाराज ! यही दशा आपकी कही जा सकती है।