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भरतेस भव
कन्याओं के साथ विवाह हुआ। पूर्वोक्त प्रकार भरतेश्वरने अपने महलमें उन देवियों के साथ अनेक प्रकारसे क्रीड़ा की। उन स्त्रियांमे सिन्धुरावती बन्धुराबती नामक दो स्त्रियाँ अत्यधिक सुन्दर थीं। ये दोनों वेतंडराजाकी पुत्रियां हैं। इन दोनोंके प्रति सम्राट्के हृदयमें विशेष अनुराग हआ। उनके सौन्दर्य को देखकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपने मन में विचार किया कि ये दोनों परमसुन्दरी हैं । म्लेच्छ खण्डमें उत्पन्न होनेपर भी इनमें कुछ विशेषताएं हैं । स्वच्छ रूपको धारणकर अत्यधिक कुशल युवतियों के उत्पन्न होनेसे ही शायद इस स्वण्डको म्लेच्छखंड नाम पड़ा होगा। वहाँपर धर्माचरण नहीं है, इतने मात्रसे उसे म्लेच्छखंड कहते हैं । बाकी सौन्दर्य कामकलाकौशल्य आदि बातोंमें ये कर्मभूमिज स्त्रियोंसे क्या कम हैं। धर्माचरण इन में और मिल जाय तो किसी भी बातमें कम नहीं हैं। कोई हर्जकी बात नहीं, इनको अब धर्मपालन क्रमको सिखाना चाहिये । मेरे भाग्यसे ही मुझे ऐसी सुन्दरियोंकी प्राप्ति हुई है । इस विषयको दूसरोंके साथ बोलना उचित नहीं है। अपने मनमें ही रखना चाहिये । यह मेरे परमात्माकी कृपा है । धन्य है परमात्मा ! भक्तिपूर्वक जो तुम्हारी प्रार्थना करते हैं उन्हें कैवल्य सुखकी प्राप्ति होती है, फिर लौकिक सुख मिले इसमें आश्चर्यकी क्या बात है ? आये हुए सुखका त्याम नहीं करना चाहिये, नहीं आते हुये की अभिलाषा नहीं करनी चाहिये । अपने शरीरमें स्थित आत्माको कभी भुलना नहीं चाहिये। उस व्यक्तिके पास दुःख कभी नहीं आ सकता । सांसारिक सुखका अनुभव करना कोई पाप नहीं, परन्तु उसके साथ अपनेको भुलाना यह पाप है। आत्मज्ञानी स्त्रियोंके भोगको भोगते हुए भी "पुवेयं वेदंतो' इस सिद्धान्तसूत्रके अनुसार वेदनीय कर्मकी निर्जरा ही करता है । इस रहस्यको विबेकी ही जान सकते हैं। हर एकको इसे समझनेकी पात्रता नहीं। यह परम रहस्य है। इसे लोगोंके सामने कहूँ तो वे हँसेंगे इत्यादि प्रकारसे मनमें ही विचार करने लगे एवं उन रमणियोंके साथ यथेष्ट सुख भोगने लगे। इतना ही नहीं, भरतेश्वरके व्यवहारसे सन्तुष्ट वे स्त्रियाँ अपने मातापिताओंको भी भूल गई । इस प्रकार बहुत आनन्दके साथ उन्होंने समय व्यतीत किया। विवाहके उपलक्ष्य में पहिलेके समान ही मंत्री, सेनापति एवं कन्याओंके पिता आदिका यथोचित सन्मान किया गया।
रात्रिदिन सेना-कटकस्थानमें उत्सव ही उत्सव होते रहते हैं। उस