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भरतेश वैभव साथ आकर महलमें रहे। इधर-उधरसे उनकी रानियाँ बैठी हुई हैं। अपने पतिदेवके अलौकिक सौन्दर्यको देखकर उनकी आँखें तृप्त नहीं होता, एक रात्री विनोद हिरे गलने लगी कि स्वामिन् ! कुछ निवेदन करना चाहती हूँ । एक हंसको हजारों हंसिनी पहिलेसे मौजूद हैं, फिर भी वह हंस अनेक हंसिनियों को प्राप्त कर रहा है । ऐसी अवस्थामें पहिलेकी हंसिनियोंको दुःख होगा या नहीं ? भरतेश्वरने हँसकर उत्तर दिया कि देवी! एक ही हंस जब हजारों रूपको धारणकर आगत व स्थित हजारों हंसिनियोंको सुख देता है तो फिर दुःखका क्या कारण है ? इतने में दूसरी रानी कहने लगी कि राजन् ! फूलके दुकान में एक भ्रमर था। वह हर एक फलपर बैठकर रस चूस रहा था। फुलारी नवीन पुष्पोंको दुकानमें लाया, ऐसी अवस्थामें उस भ्रमरको किन फुलोपर इच्छा होगी, नवीन फूलोपर या पुराने फूलोंपर ?
भरतेश्वरने उसके मनको समझकर कहा कि देवी ! वह भ्रमर कुत्सित विचारका नहीं है। वह परमपरंज्योति परमात्माका दर्शन रात्रिदिन करनेवाला भ्रमर है । ऐसी अवस्थामें उस भ्रमरको पुराने और नये सभी फूल समान प्रीतिके पात्र हैं। आत्मविज्ञानीकी दृष्टिसे सोना और कंकर, महल और जंगल जब एक सरीखे हैं फिर नवीन और पुराने पदार्थों में वह भेद क्यों मानेगा? उसी समय बाकीकी रानियोंने कहा कि देवियों ! आप लोग इस मंगल समयमें ऐसी बातें क्यों कर रही हैं। पतिराजके हृदयमें कसी चोट लगेगी ? सरसमें बिरस क्यों ? इस समयमें आप लोग चुप रहें ! लोककी सभी स्त्रियाँ आ जाएँ तो भी एक पुरुष जिस प्रकार एक स्त्रीका पालन करता है, उसी प्रकार अव्याहतरूपसे पालन करनेका सामर्थ्य जब पुरुषोत्तम प्रतिराजको मौजूद है, फिर हमें चिन्ता करनेकी क्या जरूरत है ? .
भरतेश्वरने भी उन रानियोंको सन्तुष्ट करते हुए कहा कि देवियों ! इस प्रसंगको कौन चाहते थे ? हजारों रानियों के होते हुए और अधिक स्त्रियोंकी लालसा मुझे नहीं है । फिर भी पूर्व में जो मैंने आत्मभावना की है उसका ही फल है कि आज उस पुण्यका उदय इस प्रकार आ रहा है । आप लोग ही विचार करें कि मैंने आप लोगोंसे भी जड़ विवाह किया तब मैं चाह करके तो नहीं आया था ? आजकी कन्याओंको भी मैं निमन्त्रण देने नहीं गया था। फिर भी उस पूर्वपुण्यने आप लोंगोंको व इनको बुलाकर मेरे साथ सम्बद्ध किया। जबतक कर्मका सम्बन्ध है उसके भोगको अनुभव करना ही पड़ेगा, यह संसारकी रीत