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भरतेश वैभव
२५३ प्रस्थान किया। विजया देवके जानेके बाद उस तमिस्र गुफाके अधिपति कृतमाल नामक व्यन्त र देव आया। उसने भी अनेक रत्ननिमित उपहागेको समर्पणकर भरतेश्वरः चरणोंको साष्टांग नमस्कार किया। मागधामरने कृतमालदेवका परिचय कराया कि स्वामिन् ! यह अपने बन्धु कृतमाल देव हैं। जिस तमिस्र गुफाके बजकपाटवो आपने अभी तोड़ा है उसी गुफाका यह अधिपति है। वह विनीत भावसे आपकी सेवा के लिये उपस्थित हुआ है। चाहे उसे फिलहाल अपने स्थानकी ओर जाने के लिये आज्ञा दी जाय, आगे सेनाप्रस्थान के ममय आवे तो काम चल सकता है। भरतेश्वरने भी योग्य सत्कारके साथ उस कृतमालको रवाना किया।
भरतेश्वरने अब सेनास्थान में जाने के लिये अपने घोड को फिराया । सेनाकी ओर जाते समय भरतेश्वर ऐसे मालूम हो रहे थे कि जैसे कोई देवेन्द्र ही स्वर्गसे उतरकर आ रहा हो । एक निश्चिमापर वह अश्वरत्न भरतेश्वरको इच्छित स्थान पर लाया । सेनास्थानमें प्रवेश करते ही सेनाके आनन्दका पारावार नहीं रहा। राजा सुखी होनेपर राज्य भी मुखी है यह कहावत उस समय चरितार्थ हो रही थी। भरतेश्वर भी प्रजाओंके आनन्दको देखते हुए बढ़ रहे हैं। सामनेसे अर्कीति, आदिराज व वृषभराज अनेक भेंट अपने हाथ में लेकर पितृ. दर्शनके लिये आ रहे हैं। बहुत भक्तिसे भरतेश्वरको उन्होंने नमस्कार किया । भरतेश्वरने तीनों कुमारोंको एक-एक घोड़ेपर चढ़कर अपने साथ हो लेनेके लिये कहा। तीनों कुमार भी अश्वारोही होकर भरतेश्वरके माथ जाने लगे। __ मंत्री, सेनापति, राजगण, राजकुमार वगैरह अगणित संख्यामें भरतेश्वरको मार्गमें नमस्कार कर रहे हैं | स्तुतिपाठक अनेक प्रकारसे भरतेश्वरकी स्तुति कर रहे हैं। कविगण अनेक रचनासे उनका वर्णन कर रहे हैं। इन सब आनन्दोंको देखते हुए भरतेश्वर अपने महलकी ओर आ रहे हैं। महलके बाहरके दरवाजे के पास अश्वरत्नको खड़ा कर दिया। वहींपर स्वयं उतर गये, अपने साथ के व्यन्तर आदिकोंको अपने अपने स्थानमें जानेके लिये कहकर एवं अश्वरत्नको उसकी थकावटको दूर करनेके लिये योग्य सत्कार-उपचार करने के लिये आज्ञा देते हुए स्वयं महलमें प्रविष्ट हो गये।
महल में रानियोंके आनन्दका क्या वर्णन करें ? वहाँपर सन्तोष सागर ही उमड़कर आ रहा है । आज पतिराज एक बड़े भारी लोक