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________________ भरतेश वैभव २३३ इस शुभ भावनाका ही यह फल है कि भरतेश्वरका नित्य भाग्योश्य होता है। इति वरतनुसाध्य संधि --- - - प्रभासामचिन्ह संधि प्रस्थान भेरीके शब्दने तीन लोक आकाश व दशों दिशाओंको व्याप्त किया। तत्क्षण सेनाने पश्चिम दिशाकी ओर प्रयाण किया। राजसूर्य भरतेश्वर पालकीपर आरूढ होकर जा रहे हैं। आदिराजकी सेना पीछेसे आ रही है। पासमें ही मागधामर ध्रुवगति व सुरकीतिके साथ आ रहा है। इसी प्रकार मगध, कांबोज, मालव, चेर, चोल हम्मीर, केरल, अंग, बंग, कलिंग, बंगाल आदि बहतसे देशके राजा हैं । उनको देखते हुए भरतेश्वर बहुत आनंदके साथ जा रहे हैं । बीचमें कितने ही स्थानोंमें सेनाका मुक्काम कराते जा रहे हैं। फिर आगे सेनापतिके इशारेसे सेनाका प्रस्थान होता है । ठण्डे समयमें सेनाका प्रयाण होता है । धूपके समय में सेनाको विश्रांति दी जाती है। अनेक पुत्रोंके पिताको जिस प्रकार पूत्रोंपर समप्रेम रहता है उसी प्रकार सेनापति जयकुमार भी सभी सेनाओं पर सदृश प्रेम करता था। इससे किसीको किसी प्रकारका भी कष्ट नहीं होता था। इतना ही नहीं सेनाके हाथी, घोड़ा वगैरह प्राणियोंको भी किसी प्रकारका कष्ट नहीं होता था। वह विवेकी था। इसलिए सबकी चिंता करता था। इसलिए उसे सेनापतिरत्न कहते हैं । ___इस प्रकार मुक्काम करते हुए सुखप्रयाण करते हुए जब सेना आगे बढ़ रही थी, एक मुक्काममें भरतेश्वरकी रानी चंद्रिकादेवीने एक पुत्ररत्नको प्रसव किया। इसी समय हर्षोपलक्ष्यमें जिनमंदिर वगैरह तोरण इत्यादिसे अलंकृत किये गये । हर्षको सूचित करनेवाले अनेक वाद्यविशेष बजने लगे । सर्वत्र भरतेश्वरको पुत्रोत्पत्तिका समाचार फैल गया । वरतनु भी बहुत हर्षके साथ भरतेश्वरकी सेवामें उपस्थित हुआ। भरतेश्वरका दर्शन करते हुए बहुत दुःखके साथ कहने लगा कि स्वामिन् ! मैं बहुत ही अभागा हूँ। मेरे नगरके पास आपको पुत्ररलकी प्राप्ति न होकर आगे आनेपर हुई है। सम्राटको पुत्ररत्न होनेपर
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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