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भरतेश वैभव
२२९ वरतनु व्यन्तर अपने परिवारके साथ आ रहा है। यह मालूम होते ही भरतेश्वरने आदिराजको गन्धमाश्ववीको सौंप व अर्ककीतिको मंदाकिनी दासीको सौंप दिया व स्वयं बहुत गंभीरताके माथ बैठ गये । वरतनु समुद्रतटतक तो विमानपर आरूढ़ होकर आया । बादमें अपने वैभबके चिह्नोंको छोड़कर पैदल ही भरलेश्वरकी ओर आने लगा। वह हँसमुत्री है, दीर्घदेही है, मतली है। सचमुच उसको बरतन नाम शोभा देता है। उसके कंधेपर एक दुपट्टा गोभित हो रहा है । हाथमें अनेक प्रकारके उत्तमोत्तम उपहारके योग्य वस्तुओंको लेकर अपने मंत्री के साथ आ रहा है । आगे मागधामर है, पीछेसे धरतनु है । दोनों व्यंतरोंने बहुत विनयके साथ दरबारमें प्रवेश किया ।
दरबारमें वेत्रधारीगण अनेक प्रकारके शब्दोंका उच्चारण कर रहे हैं । युद्धभुमिमें वीर ! मदोन्मत्त शत्रुओंके मानखण्डनमें तत्पर ! शरणागतोंके रक्षक ! राजन् ! वरतन व्यतर आ रहा है, दृष्टिपात कीलियेगा । इत्यादि शब्दोंको वरतन सुन रहा है । दूरसे ही उसने भरतेश्वरको देख लिया। उनके दिव्य शरीरको देखकर वरतनु विचार करने लगा कि यदि राजा होकर उत्पन्न हो तो इसी प्रकार होवें। इस प्रकार भावना करते हुए दोनों भरतेश्वरकी ओर आये । दरबारमें दोनों ओरसे राजागण विराजमान हैं। बीच में उच्च मिहासनपर भरतेश्वर विराजमान हैं। मागधामरने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा कि स्वामिन् ! बरतनु आया है। देखिये ! आगे और कहने लगा कि मैंने उसके पास जाकर कहा कि तुम्हारे समुदके तुटपर श्री सम्राट भरतेश्वर आये हैं। इतना सुनते ही उसने बड़ा हर्ष प्रकट किया और आपने भाग्यकी सराहना करते हुए उसी समय मेरे साथ चलकर यहाँपर आया। स्वामिन् ! वरतनु कहने लगा कि भगवान् आदिनाथ स्वामीके पुत्रका दर्शन कौन नहीं करेगा ? आत्मविज्ञानीके दर्शनसे कौन वंचित रहेगा? इस प्रकार कहते हुए वह बद्धिमान् वरतनु आपकी सेवामें उपस्थित हुआ है । ___ बरतनुने बहुत भक्तिपूर्वक अनेक रत्न, वस्त्र वगैरह उपहारोंको समर्पण करते हए भरतेशको अपने मंत्रीके साथ साष्टांग नमस्कार किया । स्वामिन् ! आपके वर्शनसे हमारे दोनों नेत्र सफल हो गये । हृदय प्रसन्न हुआ। इससे अधिक मुझे और किस बातकी जरूरत है ? इस प्रकार कहते हुए साष्टग ही पड़ा था। भरतेश्वर मनमें ही समस