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________________ ર4 भरतेश वैभव प्रकार हजारों, लाखों, करोड़ों क्या अगणित तरंग आ रहे हैं। बीच बीचमें बहुतसे पर्वत हैं । कहीं-कहीं नाव, जहाज, लांच वगैरह देखने में आते हैं। दम कर रह प्रान सिर शोमागतो ना समाको देखकर वे सब देवियाँ बहुत प्रसन्न हुई। सम्राट्ने कहा कि आप लोग आजस रोज समुद्रको देख सकती हैं। आज इतना ही बहुत है। अपन सब नीचे चलें। ऐसा कहकर सब लोगोंको साथ लेकर नीचेकी महलमें आये । वह दिन बहुत आनन्द के साथ व्यतीत हुआ। राग व भोगके साथ चक्रवर्तीने पूर्वसागरके तटमें निवास किया। शायद हमारे प्रिय पाठकोंको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भरतेश्वरको भी रानियोंके समान ही उन समुद्रको देखकर अत्यधिक सन्तोष हुआ होगा ! नहीं ! उनको समुद्रको देखनेसे हर्ष नहीं हुआ। उनके पास ही समुद्र है । ज्ञानसमुद्रका दर्शन वे रोज करते हैं । उनको किस बातकी परवाह है ? यदि सन्तोष हुआ तो केवल इस बातका कि पूर्वसागर सदृश सुन्दर स्थानमें बैठकर उस ज्ञानसागर परमात्माका विशेष रूपसे निराकुलतासे दर्शन करेंगे। बाह्यसुन्दरतापर वे मुग्ध नहीं हुआ करते हैं। बाह्म वैचित्र्य यदि अन्तरंगके लिए सहायक हो तो उसीका अनुभव कर लेते हैं। इसलिये ही उनकी सदा भावना रहती है कि : हे परमात्मन् ! समुद्रको लोग गम्भीर है ऐसा वर्णन करते हैं। तुम्हारी गम्भीरताके सामने उसकी गम्भीरता कोई चीज नहीं है। तुम्हारा गांभीर्य उसे तिरस्कृत कर देता है। समुद्रका जल अगाध है। वह अपार है। उसी प्रकार तुम्हारी महिमा भी अगाध व अपार है। इसलिये परमात्मन् ! मेरे हृदयमें तुम्हारा अध्यवसाय निरबच्छित्ररूपमें बना रहे। सिद्धास्मन् ! आप भव्योंके संपूर्ण दुःखोंको दूर करनेवाले हैं। भव्योंके मनको प्रसन्न करनेवाले हैं। संपूर्ण कोको दूर कर चुके हैं। अतएव अनन्त सुखके पिण्डमें मग्न हैं। आप सर्व कल्याणकारी हैं। मुनि, महामुनियोंके हृदयमें भी ज्ञानज्योतिको उत्पन्न करने के लिए आप साधक हैं । इसलिये स्वामिन् ! हमें भी सुबुद्धि दीजिये ताकि हम मधुरवचनके द्वारा संसारका कल्याण कर सकें। इति पूर्वसागरवन संषि
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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