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________________ भरतेश वैभव २०५ वैभवके साथ सम्राट्ने अपनी सेनाको बीच-बीच में अनेक स्थानों में विश्रांति देकर गंगानदीके सुन्दर किनारेपरसे प्रस्थान कराया। आगे अब पूर्वसमुद्रकी ओर जा रहे हैं । देवगंगा के दक्षिण में उपलवण समुद्र मौजूद है। उसे दाहिनी ओर कर भरतेश अपनी सेनाके साथ जा रहे हैं। अनेक स्थानोंमें सेनापति श्री जयकुमारके इशारेसे मुक्काम करते-करते पूर्वसमुद्रको गोठ लिया। पूर्वसागर के दर्शन करते ही सभी सेनाओंमें एक नवीन उल्लास छा गया । बुद्धिसागरने आकर समयोचित विनती की कि राजन् ! इस समुद्रका अधिपति मागधामर नामक व्यंतर है । वह अत्यंत कोपी है पर वीर है, उसको सबसे पहिले बशमें कर लेना चाहिए। बादमें आगेके कार्यके संबंध में विचार करेंगे। बुद्धिसागरके वचनकी सुनने के बाद सम्राट्ने कहा कि क्या भागामधी है ? उसके क्रोधकों में भस्म कर दूंगा । उसे शायद समुद्रमें रहनेका अभिमान होगा । उसे मैं क्षणभर में वशमें कर लूंगा। रहने दो। उसे पहिले मैं एक पत्र भेजकर देखूंगा । पत्र पढ़कर भी वह यदि नहीं आवे तो फिर उसे योग्य बुद्धि सिखाऊंगा, अभी उससे बोलनेसे क्या प्रयोजन ? उसी समय आज्ञा दी गई कि वहीं पर सेनाका मुक्काम हो जाय । पूर्वसागर के तटमें सेनासागरने अपनी विशालताको व्यक्त किया । ३६ योजन चौड़ाई व ४० योजन लम्बाईके उस विशाल प्रदेशको सेनाने अपना स्थान बनाया । विशेष क्या, बहुपर बाजार, अश्वालय, गजालय, वेश्यागली आदि समस्त रचनायें विश्वकर्माके वैचित्र्यसे क्षणमात्रमें हो गई। राजगण, राजपुत्र, राजमित्र, मंत्री व मंत्रिपरिवार, आदि सबको योग्य स्थानोंका प्रबंध किया गया था। उस नगरके बीच में अनेक परकोटोंसे वेष्टित राजमहल निर्मित हो गया था। साथ में भरतेशकी रानियों को अलग-अलग रनिवास, शयनगृह, जिनमन्दिर आदि सबकी सुन्दर व्यवस्था की गई थी। भरतेशने सबको अपने अपने स्थानमें जानेके लिए आज्ञा दी व जयकुमार सेनाको बहुत होशियारीके साथ सम्हालने के लिए कहकर स्वयं जाने लगे, इतनेमें अर्ककीतिकी सेना आ गई और सन्तोषके साथ उसने महलमें प्रवेश किया। सम्राट्ने भी पालकीसे उतरकर अंदर प्रवेश किया ।
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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