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भरतेश वैभव
२०३ तुम भी असमान हो और मेरी बहिन भी असमान है। अममान गुरुषको असमान स्त्रीकी जोड़ कर देना बुद्धिमत्ता नहीं तो और क्या है ? राजा उसे सुनकर कुछ मुस्कराये व कहने लगे कि अब बिबाहका समय हो गया है। तुम्हारे साथ बहत विनोद वार्तालाप करने के लिये यह समय नहीं है । इस प्रकार कहकर मंगल प्रसंगके मंगलाष्टक सोभनपद वगैरहको सुनते हुए खड़े हुए। इतने में बीचका पर्दा हटा दिया गया। गजानक राजाने गुरुमंत्रमाक्षिपूर्वक जलधाराको छोड़नेपर श्री सम्राट्ने होममाक्षी पूर्वक मकरन्दाजीको ग्रहण किया।
राजेन्द्र भरत उस मकरन्दाजीको लेकर अपनी महलमें चले गये। कुसुमाजीने अपने पिताको विश्रांतिके लिये भेज दिया। राजा भरत सुखांगमें मग्न हो गये।
सेनामें इस आकस्मिक विवाहकी चर्चा होने लगी । मब लोग कहते लगे कि भरतेशका पुण्य दिन है। इस दिवासे बापाला पृथ्वी वशमें होगी। इसके लिये यह विवाह ही पूर्व सूचना है। कल एकादशी है । अपन आगे जायेंगे । इत्यादि अनेक प्रकारके विचारोंसे सेनाने भी विश्रांति ली।
पाठकोंको भी आश्चर्य होता होगा कि भरतेश्वरका भाग्य इतना विशाल क्यों है ? जहाँ जाते हैं उनको आनन्द मिलता है। महलमें रहते हैं तो सुख, बाहर निकले तो वहाँपर भी सुख । इस प्रकारका भाग्य संसारमें अतिविरल मनुष्योंका हो हो सकता है । भरतेश्वरने पूर्व में ऐसा कौनसा कार्य किया होगा जिसके द्वारा उन्हें इस भरमें अनन्य दुर्लभ वैभवोंकी प्राप्ति हो रही है। इसका एक मात्र उत्तर यह है कि पूर्वजन्मका संस्कार, पूर्वजन्मका धर्माचरण । उन्होंने पूर्वभवमें व वर्तमानभवमें इस प्रकार आत्मभावना की है कि : .
हे आत्मन् ! ज्ञान व दर्शन ही तुम्हारा स्वरूप है। उस ज्ञान व दर्शनका प्रकाश तुम्हारे रूपमें उज्ज्वल रूपसे प्रतिभासित हो रहा है। वही संसारमें मोहांधकारमें पड़े रहनेवाले प्राणियोंको भी मोक्षपथप्रदर्शक है । इसलिए हे परमात्मन् ! तुम भव्योंके हितैषी हो। इसलिये छिपो मत ! मेरे शरीरकी आड़में बराबर बने रहो।
उसी भावनाके मधुर फलको वे प्रति समय मुखस्वरूपमें अनुभव करते हैं।
इति वशमिप्रस्थान संधि.
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