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________________ प्रस्तावना भरतेश भव ओर रत्नाकरवण साहित्य संसार में कर्नाटक साहित्य के लिए बहुत ऊंचा स्थान है। कर्नाटक भाषा में जैन साहित्य विपुल रूपसे अंकित किये गये हैं । अन्यसाहित्यको अपेक्षा इसमें शब्दमाधुर्यं भावमा स्वनकौशल होनेसे त्राही 7 सुग्राम भी हुआ करता है। जैन साहित्यका बहुभाग वंश कर्नाटक भाषामें अंकित कहा जाय तो अनुचित न होगा। कर्नाटक देश में बड़े-बड़े आगमों के ज्ञाता कवि हुए हैं । उनमें सबसे अधिक श्रेय इस क्षेत्रमें प्राप्त हुआ है तो रत्नाकरवर्णीको कह सकते हैं। उसकी रचनायें सभी दृष्टिसे अद्वितीय है । उपयुक्त कविने कर्नाटक कविताओं में भरतचक्रवर्तीका स्वतंत्र जीवनचरित्र चित्रित किया है। इस ग्रंथको फर्नाटक में " मरतेशचरिते" कहने की पद्धति पली आ रही है । परन्तु कविने स्वयं पीठिका में कहा है कि " श्री भरते वैभवविदु" अर्थात् यह भरतेशवैभव है, 'भरतेश वैभव काव्यवनिदनोरेदेनु सुखिगळालिपुदु' अर्थात् भरतेशवंभव नामक काव्यको मैंने कहा है, सज्जन लोग सुनें । इसमें इस ग्रन्थका नाम भरतेशवंभव ऐसा जान पड़ता है। सचमुच में इसमें भरतके वैभवका ही वर्णन किया है, इसलिए इसका यही नाम उपयुक्त है । कोई कोई इसे मरतेशसंगति और अण्णा परिसके नामसे कहते हैं। यह ग्रन्थ कर्नाटकके सांगत्य खंदमें निमित होनेसे पहिला नाम एवं इस कविको अण्णागळु ( भाईसाहेब ) कह करके पुकारनेकी पद्धति होने से इसका दूसरा नाम रूढ़ि में आया होगा । ग्रंथ प्रमाण : यह ग्रन्थ पाँच कल्याणोंसे विभक्त है जिनको कविने क्रमसे मोगविजय, विग्विजय, योगविजय, मोक्षविजय, अकंकी तिविजय इस प्रकार नाम दिये हैं। इस पत्रिका में अस्सी संघिय एवं ९९६० श्लोक संख्या है। वही राजावति कपासे इस मन्यमें ८४ संधियोंका होना सिद्ध होता है । परन्तु ४ संधियाँ इस समय अनुपलब्ध हूँ । कवि : इस ग्रन्थकर्ताका नाम रत्नाकरवण है । कविने अपनेको क्षत्रिय वंशज कहा हूँ । उसमें श्रीमन्वर स्वामी को अपने पिता, दीक्षा गुरुके स्थान में बाक्कीतिको एवं
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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