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भरतेश वैभव
कैसा है ? भरतेश्वर कहने लगे माता ! वह भी नियमन्नत है, यमव्रत नहीं । युद्धको जाते समय, चिता व सूतकके समय इस यतका पालन नहीं होता है। हाँ ! सानंद महल में रहते हुए इस व्रतका निरन्नर पालन करता हूँ । माता ! मैं अभेदभक्तिकी उपेक्षा नहीं करता। बाह्य आचरणका कभी पालन करता हूँ, कभी नहीं भी करता हूँ। माता ! राज्यकी झंझटके होते हए जो पल सके उसी व्रतको ग्रहण करना चाहिये ! बड़े व्रतको ग्रहण कर बीचमें चिंतामें पड़ना यह पागलोंका कार्य है।
माता ! विशेष क्या कहूँ ? देवाधिदेवकी रानी यशस्वतीके गर्भसे उत्पन्न यह भरत बिलकुल मुर्ख नहीं है। आप चिता न करें। मैं अपनी शक्ति देखकर ही नतका पालन करता हूँ। ___ इन बातोंको सुनकर माता यशस्वती कहने लगी कि बेटा ! असीम राज्यको पालन करनेवाले तुझे बतादिकके पालन करनेमें बड़ा कष्ट होता होगा। इस बातकी मुझे चिंता जरूर थी, किन्तु अब वह दूर हो गई है । मैं कई बार सोचती थी कि बेटेको बुलाकर एकबार सममाऊं फिर उसी समय मनमें विचार आता था कि मेरे पुत्रकी वृत्तिकी देवेन्द्र प्रशंसा करता है, मैं उसे क्या कहूँ ? बेटा ! इस युवावस्थामें अगणित सुन्दरी स्त्रियोंके बीचमें रहनेपर भी अपनेको नहीं भूलकर जागत अबस्थामें रहने की तुम्हारी वृत्तिको देखनेपर मेरा मन प्रसन्न होता है। मेरे पुत्रको हजारों झंझटे हैं। उनमें यह व्रत व उपवास आदि की एक और चिंता लग गई, इसकी मुझे कभी-कभी चिंता होती है, परंतु तुन्हें उन सब बातोंसे अलग देखते हुए मुझे परमहर्ष होता है। बेटा भरत ! तुम्हारी शपथपूर्वक कहती हूँ कि तुम्हारे राज्य, भोग, स्त्रियों तथा तुम्हारे व्रतोंको देखनेपर मन में विशेष चिन्ता होती थी। आज तुम्हारी बातें सुननेसे वह चिंता दूर हो गई।
भरतेश कहने लगे माता ! आप मेरी इतनी चिंता करती हैं, इससे मुझे किसी प्रकारका भय नहीं है, अन्यथा मुझे इस प्रकारको सम्पत्ति कहाँमे प्राप्त होती ? यह सब आपका ही प्रसाद है । __इस प्रकार वार्तालाप करते हुए सब मिलकर महल के द्वारपर पहुँचे, उस समय भरतेशने माताके पादकमलोंका शुद्ध जलसे प्रक्षालन किया। फिर अंदर जानेके बाद उच्च आसनपर माताको बैठाकर पूजाकी तैयारी करने लगे।