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________________ १७० भरतेश वैभव इस प्रकार उपवासके आयामसे रहित होकर वे अत्यंत संतोषके साथ भीषण कोका नाश करते हुए अपने सरसको यती र रहे हैं। रात्रि बीत गई, अब सूर्योदय होने के लिए पांच घटिका शेष है। भरतेश अभीतक ध्यानमें ही मग्न हैं। पाठकोंको आश्चर्य होगा कि भरतेश्वर इतने सब राज्य प्रपंचके बीच रहकर भी इस प्रकार संयम व ध्यान में कैसे मग्न हो जाते हैं ? उनकी चित्तस्थिरता कैसे होती है? वे सदा परमात्माका स्मरण इन शब्दोंसे करते रहते हैं कि : हे चिदंबरपुरुष ! परमात्मन् ! सुवर्णकाय योगियोंके हृदयमें आप जिस प्रकार भरे हुए रहते हैं उसी प्रकार हे गुरु ! मेरे हृदयमें भी स्थान पाकर रहिये, यह मेरी याचना है। सिद्धात्मन् ! आप गात्रमें रहते हुए भी गात्रातीत हैं। चित्र संसारका नाश करनेवाले हैं। पात्रके समान मुझे भी हे भानुनेत्र ! सन्मार्गमें चलनेकी सुबुद्धि दीजिये। इसी भावनाका यह फल है। इति पर्वयोग संधि -- - अथ पारणासन्धिः भरतेश अभीतक ध्यानमें मग्न हैं। उनके ध्यानका क्या वर्णन करें? शांति, कांति व एकांतका आदर्श वहाँपर था। ___ कोयलके शब्द, वीणाके स्वर व समुद्रके घोषके समान वह ब्रह्मयोग भरतेशके कानमें मीठी-मीठी आवाज उत्पन्न कर रहा है। उनको मोतीके धवल बिन्दुका भी दर्शन हो रहा है। कभी आनंदसे मैं इधर उधर जा रहा हूँ, इस बात के सुखका अनुभव हो रहा है। वे रत्नमालाके अंदर अक्षर पंक्तियोंको भी उस ध्यान में देख रहे हैं। साथमें रलत्रयसे युक्त आत्माको देखकर विरोधी कर्मोको नष्ट कर रहे हैं। अंदरसे भरतेश शुक्लस्वरूप आत्माको देख रहे हैं, बाहरसे भी अब प्रकाश होने लगा है। __ शीत पवनका संचार होने लगा। ताराओंकी कांति फीकी पड़ गई, जगत्का अंधकार कम हुआ। जिनमंदिरोंमें वायघोष भी होने लगा,
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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