________________
भरतेश वैभव
१४७ देखना पड़ेगा । संसारका लोभ बहुत बुरा है। पर पदाकि मोहने ही इस आत्माको उस अभेद भक्तिसे च्युत किया है इसलिये सबसे पहिले आशा-पाशको तोड़ो। आशाओंको कम करनेके बाद एकांतवासमें जाकर आँख मींचकर उसका चितवन करो तो उस अवस्था में वह अत्यंत शुभ्ररूप होकर शानमें वत्तरित हो दिक्षता है .
उसे देखनेका प्रयत्न करें तो भी वह एक ही दिनमें नहीं दीख सकता है । अभ्यास करते करते क्रमसे उसका दर्शन होता है । परंतु यह अवश्य है कि एकाध दिनमें वह न दिखे, तो भी आलस्य न कर बराबर प्रयत्न करना चाहिये । अध्यात्मका अभ्यास करना चाहिये ।
हे सुखकांक्षिणि ! इस प्रकारकी अभेदभक्तिसे कर्मोंका नाश होता है । मुक्तिकी प्राप्ति होती है। सभी धर्मोंमें यही उत्कृष्ट धर्म है। सज्जन इसे स्वीकार करते हैं। जिनका होनहार खराब है ऐसे अभव्य इसे स्वीकार नहीं कर सकते ।
विद्यामणि देवी फिर उठकर खड़ी हुई और हाथ जोड़कर अत्यंत भक्तिसे प्रार्थना करने लगी स्वामिन् ! इस अभेदभक्तिका अभ्यास पुरुषों को हो होता है या स्त्रियोंको भी हो सकता है इसका रहस्य जरा हमें समझा दीजियेगा।
देवी ! सुनो! वह भक्ति दो प्रकारकी है। एक धर्म व दुसरा शुक्ल । यद्यपि कहने में दो प्रकार दिखती है, परंतु विचार करनेपर दोनों एक ही है, कारण दोनोंका अवलम्बनरूप आत्मा एक ही है। .
भक्तिका अभ्यास करते समय या ध्यान करते समय यदि आत्म. प्रकाश अल्प प्रमाणमें दिखा, तो उसे धर्म ध्यान समझना चाहिये । यदि विशिष्ट प्रकाश हुआ, तो उसे शुक्ल ध्यान समझना चाहिये । देवी ! एक तो वर्षाकालकी धूप है, और दूसरी ग्रीष्मकी धूप है। इतना ही दोनोंमें अंतर है।
जो इसी भवसे मुक्तिको प्राप्त करनेवाले हैं उनको शुक्ल ध्यानकी प्राप्ति होती है । जो कमसे अपनी कर्मसंतानको नाशकर मुक्ति जायेंगे उनको धर्म्ययोगकी प्राप्ति होती है।
स्त्रियोंको इस जन्मसे ही मुक्ति नहीं होती है। इसलिये उन्हें शुक्लध्यानकी प्राप्ति स्त्रीपर्याय में नहीं होती। किन्तु, निराश होने की आवश्यकता नहीं है, धर्म्ययोगको स्त्रियाँ भी धारण कर सकती हैं। इसपर विश्वास करो।