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________________ महाकवि रत्नाकरवणिरचित धरतेश साव करोड़ों चंद्रसूर्योके प्रकाशसे भी अधिक तेज जिसका है ऐसी केवलज्ञानरूपी उत्कृष्ट ज्योतिको धारण करनेवाले एवं जिनके चरण देवताओंके मस्तकके किरीटोंसे प्रतिबिंबित हो रहे हैं ऐसे श्री भगवान वृषभदेव हमारी रक्षा करें। ___ अष्टकर्मोंसे रहित होनेसे सर्वदा शुद्ध एवं केवलज्ञानसंपत्तिके अधिपति सिद्ध परमेष्ठिको हमने नमस्कार किया है । इसलिए सिद्धरसमेंपारसमें डुबोये हुए लोहेके समान अब मैं आत्मसिद्धिको प्राप्त करूंगा। अब मुझे किस बातकी चिंता है ? व्यवहार व निश्चयको जानकर, आत्माको पहिचान कर, आत्मसाधन करनेवाले तीन कम नव करोड़ मुनियोंके चरणोंमें हमारा नमस्कार हो । हे आत्मन् ! तुम परब्रह्म हो ! तीनों लोक तुम ही श्रेष्ठ हो, ज्ञान ही तुम्हारा वस्त्र है ! सर्वमलकलंकरहित हो ! पापको जीतनेवाले हो ! इसलिये तुमको नमस्कार हो ! विशेष क्या ? मेरा साक्षात् गुरु तुम ही हो, मुझे दर्शन दो। आपसे एक प्रार्थना है, जिस समय चित्तकी एकाग्रता न रहेगी, उस समय आपका स्मरण करके आपकी आज्ञासे कर्नाटक भाषामें इसे कहूँगा। . कवियोंके बाँचने योग्य यह काव्य ईखके समान मीठा रहे। वह बाँसके समान रहे तो क्या लाभ ? हे सरस्वती, मुझे बुद्धि दो। ___ अय्या ! येष्टु चेन्नायितप्पा ? ऐसे कर्नाटकी लोग, अम्या मचिद्रि ? ऐसे तेलगु लोग, अय्या यच पोल आण्ड ? ऐसे तुजुभाषाके लोग अर्थात् यह काव्य क्या अच्छा हुआ ऐसा कहते हुए, उत्साहसे सब भाषाभाषी मन लगाकर इसे सूनें। ____ इस काव्यमें कहीं शब्ददोष, समासदोष आदि हों, तो आश्चर्य नहीं। कारण सभी लक्षणोंको लक्ष्यमें रखकर यदि काट्यकी रचना करें तो बह कठिन हो जाएगा। फिर तो वह काव्य न रहकर विचित्र प्रन्थ हो जाएगा और काव्य न रहेगा। दोष कहाँ नहीं है ! क्या चंद्रमामें काला कलंक नहीं है ? इससे क्या चाँदनी भी काली है ? नहीं । कदाचित् कहीं शब्दगत दोष आजावे तो इससे कुछ तत्वमें बाधा आ सकती है क्या ? भव्यास्माओ ! सुनो !
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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