SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : भरतेश वैभव घबड़ाकर वह कहने लगी स्वामिन्! मैं झगड़ा करनेके लिये नहीं आई हूँ। इसमें कोई गूढ़ प्रयोजन है । उसे मैं पतिदेवके साथ विचार करनेके लिये आई हैं। ९८ गुढ़ प्रयोजन क्या है ? बोलो तो सही, ऐसा भरतेश्वरने कहा । वह कहने लगी कि स्वामिन् ! उसे मूर्खोको कहना चाहिये । आप सरीखे बुद्धिमानों को उसे समझानेकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार बहुत गम्भीरता से कहती हुई बहु सम्राट्के चरण कमलको बहुत भक्तिसे दबाने लगी। पाँवको दबाती हुई देख चक्रवर्तीने पैर दबाने की तुम्हारी कुशलता बहुत अच्छी है ऐसा कहकर दोनों पैरोंसे उसे दबाये | स्वामिन्! क्या आप मुझसे प्रसन्न हुए, इसीलिये पैरसे लात मारे ? कोई बाधा नहीं है । प्रसन्न होकर मुझे ठुकराया इसमें भी मुझे हर्ष ही है । उसी समय हँसते-हँसले सम्राट् उठे, उसके बाद आगे क्या हुआ ? इसका वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है। उसकी शोभाका वर्णन करने जायेंगे तो जरा हल्की बात हो जायगी । वह बुद्धिमान था, वह बुद्धिमती थी, दोनोंने मिलकर इस प्रकारका विनोद किया जिसे मुँह खोलकर कहना उचित नहीं । ऐसे विषयों को खोलकर कहने की आवश्यकता नहीं । रसिक दम्पति मिल गये इतना कहना ही पर्याप्त है। उन्होंने क्या रसीला व्यवहार किया इसे कहना ठीक नहीं है । कलावान् व कलावती दोनों मिल गये इतना कहना पर्याप्त है । स्तनपीडन, जंघामिलन आदि बातोंके वर्णन करनेकी क्या आवश्यकता ? दोनों सुरतक्रीडा करने लगे इतना ही कहना पर्याप्त है । नखति, दन्तहति आदियों का वर्णन कर हिताहित परिज्ञानविरहित अज्ञानियोंका व्यर्थ ही लुभाने की क्या आवश्यकता ? धन्य पति-पत्नी खूब अच्छी तरहसे रमण करने लगे इतना ही कहना पर्याप्त है । उस बीचमें दैन्यवृत्तिसे, प्रणयकोपसे, हास्यकषाययुक्त अनेक वचनोंको परस्पर बोलने लगे यह कहना सौजन्य नहीं है । पति-पत्नीका संयोग हुआ इतना ही कहना काफी है । उन्होंने परस्पर आलिंगन दिया इसे कहनेकी क्या जरूरत है ? बहुत दिलचस्पी के साथ मिले इतना ही कहना चाहिये । बीच-बीच में आंख मींचकर उस सुखमें तन्मय होते थे, एवं मूर्च्छित हो जाते थे
SR No.090101
Book TitleBharatesh Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnakar Varni
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages730
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy