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भरतेश वैभव नमस्कार करो ! तुम्हारे सब दोष दूर हो जायेंगे। ऐसा कहती हुई उसके हाथ धरकर बुलाने लगी।
मकरन्दाजी लज्जाके मारे सामने नहीं आई, कुसुमाजीके बहुत आग्रह करनेपर फिर सामने आई।
अब उसके शरीरमें पहिलेके समान धृष्टता नहीं है । अपितु अब भरतको देखने में भी डरती है व लज्जित होती है। इसकी पहिले की बोल-चाल, लीला व मद अब सबके सब किधर चले गये समझमें नहीं आता। ___ कुसुमाजी फिर कहने लगी कि बहिन ! अब पतिदेवके चरणोंको नमस्कार करो व उनके पास में जाओ। परन्त मकरन्दाजीको लज्जा
आ रही है। फिर भी बड़ी बहिनके बड़े आग्रहमे उसने नमस्कार किया। ___ कुसुमाजी--बहिन ! अब अपने दोषोंके लिए इनसे क्षमायाचना करो। ___मकरन्दाजी - जाओ ! :मैंने कोई दोष ही नहीं किया फिर क्षमा किस बात की मागू? मैंने नमस्कार किया यही बहुत हुआ।
मनमें हर्ष, शरीरमें उत्साहके साथ अपनेको नमस्कार करती हुई मकरन्दाजीको देखकर भरतेशको भी अत्यन्त हर्ष हुआ। वे भी बीती हुई सब बातोपर मन ही मनमें हंस रहे थे।
इतनेमें कुसुमाजी कहने लगी कि स्वामिन् ! इसके साथमें खेल बहुत हो गया। अब भोजनके लिये बहुत देरी हो गई है, इसलिये कृपया ऊपरके महलमें पधारियेगा।
पिंजरे में बैठा हुआ अमृतवाचक! अभीतक सब बातोंको तटस्थ होकर सुन रहा था । अब सम्राट्ने उससे कहा अमृतबाचक ! तुम बड़े सरस हो, तुमपर में प्रमन्न हूँ ऐसा कहकर उसके निबासके लिए एक नवरत्नमय पिंजड़ा मँगाकर दे दिया।
इसके बाद, जिनशंरण, शब्दोच्चारणपूर्वक सम्राट् वहाँसे उठे व अपनी प्रिय रानीके साथ ऊपरके महलकी ओर चले गये ।
भरतेशके आनंदका क्या ठिकाना, जहाँ जाते हैं वहाँ आनन्दविभोर हो जाते हैं, और वैसे प्रसंग उपस्थित होते हैं। ___ उनकी सदा यह भावना रहती है कि हे चिदंबर पुरुष ! आप रात्रि
और दिनको सूर्य हैं, उड़ते हुए भी न उड़नेवाले हंस हैं, रागद्वेषसे रहित हैं, वीर हैं, मेरे अन्तरंगसे अलग न होकर सदा मेरे साथ रहियेगा।