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भरतेश वैभव मैंने जो कुछ भी देखा सो कहा, इसमें जरा भी असत्य नहीं है । दुनियामें जितने भी राजा हैं, मांडलिक हैं यदि वे हमारे पतिदेवके अनुकूल हैं तब तो वे राजा है. नहीं तो दुष्ट हैं यह तुमने जान ली है। ___ इसलिये मकरंदा ! व्यर्थकी बात मत करो, यहाँपर तुम्हारा अभिमान चल नहीं सकता है। अजिनान करमेक दिये और कोई बाह देखो । यहाँ उसके लिए स्थान नहीं है । तुम जो कोरा अभिमान पूर्ण वचन बोल रही हो उससे तुम्हारा व तुम्हारे मायकेका अहित है । मेरे पतिदेवके सामने इस प्रकार क्यों बोल रही है ? मुंह बंद कर ।
मकरंदाजी-वह्नि ! क्या ही विचित्रता है। इस राजाने तुम्हारे ऊपर वन वश्ययंत्र चलाया है, इसलिए तुम्हें उसके सिवाय और कोई दिखता ही नहीं है। तमने अपने मनको इसे बेच दिया है। पाँच इन्द्रियोंका अनुराग इसपर स्पष्ट दिख रहा है । शरीरको सब तरहसे उसे समर्पण कर दिया है। सुखमें मग्न होकर तुम अपने मायकेके घरको भूल गई, इसमें आश्चर्य क्या है ?
बहिन ! क्या तुम्हारे पतिके तांबूलमें कोई औषधि तो नहीं है ? या उनके बाहुओंमें कोई वश्यमंत्र तो नहीं है ? नहीं तो तुम इस प्रकार क्यों फंस सकती थी ? मैं झूठ नहीं बोल रही हूँ । उसने मुझे जरासा जब आलिंगन दिया मेरे सारे शरीरमें रोमांच हो गया और जब मुझे चुंबन दिया उस समय मैं मूछित होकर गिरना ही चाहती थी परंतु साहस कर सम्भल गई । मैं अपनी मानहानिके मारे इतनी क्षुब्ध हो गई कि मेरी आंखोंमें आँसू ही नहीं निकला । तुम्हारे पतिकी मायाको क्या कहूँ ? ऐसी अवस्थामें तुम उसके वशमें हो गई इसमें आश्चर्यकी बात नहीं। . सम्राट् भरत मकरंदाजीकी बातोंको बड़े ध्यानसे सुन रहे थे एवं अपने मन में विचार कर रहे थे कि इस कन्याने कहाँ सीख लिया है। अभी तो यह अविवाहित है। अभी जब इसकी यह अवस्था है तो विवाह होने के बाद फिर यह कैसी होगी? तदनंतर सम्राट प्रकटरूपमें बोले कुसुमाजी ! यह तुम्हारी बहिन बहुत रुष्ट हो गई है । उसे बहुत कष्ट हुआ है । उसे इधर बुलाओ । और भी उसका जरा सत्कार करूँ इससे उसका दुःख दूर हो जायेगा।
कुसुमाजी-बहिन ! जरा हमारे पतिदेवके पास इधर आओ।
मकरंदाजी-रहने दो, जाओ, मैं नहीं आती । पहिले एक बार तुम्हारे पतिके पास आनेका फल मुझे मिल चुका है । खूब मेरा सत्कार