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भरतेश वैभव निकालनेका प्रयत्न करने लगी । इतने में उसकी आँखोंसे पानी निकलने लगा।
चक्रवर्ती भरत इस दृश्यको देखकर जोरसे हँसे । इस समय कुसुमाजी कहने लगी बहिन ! हमारे पतिदेवके सामने किसी भी स्त्रीके दुःखके आँसू निकल ही नहीं सकते हैं। अब तुम्हारे नेत्रमें आनन्दानु निकलने लगे, मो बहुत अच्छा हुआ।
मकरन्दाजी बहिन ! तुम अपनी पतिकी ही प्रशंसा करती हो परन्तु मैं तो उनके मुखको देखना भी पसन्द नहीं करती। तुमने अपने पतिकी बृत्तिको क्या देखा नहीं ? किस प्रकार वह शिष्ट हैं ?
कुसुमाजी रहने दो तुम्हारी माया ! तोतेसे जो कुछ भी तुमने छिपकर बुलवाया उसीगो तो उन्होंने पार किया है मगर लिया फिर तुम इतनी खिसियाती क्यों हो?
इस बातको सुनकर मकरन्दाजीने भी उत्तर नहीं दिया और सिर झुकाकर हँसने लगी!
भरतने अपनी थक मकरन्दाजीको दी, परन्तु मकरन्दाजीने थू, यू कहकर उसका तिरस्कार किया । कुसुमाजी कहने लगी कि मूर्खा! यह क्या करती है। हमारे पतिदेवके थूक अमृतके समान है, उस अमृतको देते हुए तिरस्कार क्यों करती हो ? __मकरन्दाजी-बहिन ! तुम्हारे लिये अमृत होगा, मेरे लिये नहीं । ऐमा कहकर वहाँपर रखे हुए सोनेके कलगसे जल लेकर कुल्ला करने लगी व कहने लगी कि जिना ! जिना ! बड़ा अनर्थ हुआ। फिर जप करने लगी, और आँख मींचकर ध्यान करने लगी जैसे किसी बड़े भारी पापकी निवृत्ति कर रही है । औरख खोलकर भरतेशकी ओर देख रही है और लज्जित होकर सिर झुका लेती है।
फिर कुसुमाजी उसे चिढ़ानेके लिए कहने लगी कि बहिन ! इतनी ढोंग क्यों करती है ? हमारे पतिदेवकी थूकके स्पर्श होने मात्रसे तुम्हारे कोटिकुल पवित्र हुए, इसमें दुःखकी क्या बात है ? ___ मकरन्दाजी -बहिन ! क्या बोल रही हो? इस भरतेशके साथमें बिबाह होनेसे तुम अपने माता पिताओंके देशको नीची दष्टिसे देखती हो। भले ही इनके समान सम्पत्ति हमारी माता-पिताओंकी न हो परन्तु वंशमैं तो वे लोग इनसे क्या कम है ? पतिके गुणोंसे मुग्ध होकर स्वयं में सुखी हो गई हूँ ऐसा तुम कह सकती हो, परन्तु सबको नीचे देखना क्या बुद्धिमत्ता है ? क्या यह क्षत्रिय कन्याओंका धर्म है ?