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________________ ऐहोल / 47 दीवालों में पत्थर की सुन्दर जालियाँ लगाई गई हैं । बारह राशियों का चक्र और चालुक्य वंश राजकीय चिह्न भी यहाँ उत्कीर्ण हैं । अब यहाँ नन्दी विराजमान है । यह मन्दिर बस स्टॉप के बिलकुल पास में ही है । यहाँ के कुछ मन्दिरों में कुछ लोगों ने अपना डेरा बना लिया था। पुरातत्त्व विभाग उन्हें तथा यहाँ से कुछ मकान ही हटवा देने का प्रयत्न कर रहा है। ये मन्दिर द्रविड, नागर और कदम्ब शैली के कहे जाते हैं और चालुक्य तथा राष्ट्रकूट वंशों के राज्यकाल में निर्मित माने जाते हैं । मेगुटी मन्दिर – जैन पर्यटक के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण एवं दर्शनीय मन्दिर है 'मेगुटी - मन्दिर' । उपर्युक्त मन्दिर - समूह से इस मन्दिर की ओर जाने के लिए टूरिस्ट बंगला के पास एक गुफा है जो कि 'रावणफड़ी' कहलाती है । उससे कुछ आगे चलने पर छोटी पहाड़ी पर एक मन्दिर दिखाई देता है । वही मेगुटी मन्दिर है (देखें, चित्र क्र. 14 ) । मेटी का कन्नड़ भाषा में अर्थ होता है 'ऊपर का' । चूँकि यह ऊपर पहाड़ी पर स्थित है, इसलिए लोगों ने इसे 'मेगुटी मन्दिर' नाम दे दिया । गुटी मन्दिर के लिए रास्ता ज्योतिर्लिंग मन्दिर-समूह से होकर है। पहाड़ी के नीचे कुछ मकान हैं जिनके पास से 124 सीढ़ियाँ चढ़ने पर मेगुटी मन्दिर पहुँचा जाता है। पहाड़ी के इस मन्दिर से मलप्रभा नदी, मन्दिरों, ऐहोल गाँव और दूर-दूर तक की पहाड़ियों का सुन्दर दृश्य दिखाई देता है । मन्दिर के पास एक सरकारी प्रशिक्षण विद्यालय भी है। यह विद्यालय मानो उस जैन गुरुकुल का स्मरण कराता है जिसका संचालन आचार्य रविकीर्ति किया करते थे । उसमें जैन दर्शन और न्यायशास्त्र की उच्च शिक्षा दी जाती थी । यह भी विश्वास किया जाता है कि महान जैन तार्किक भट्ट अकलंक ने आचार्य रविकीर्ति से शिक्षा प्राप्त की थी । इन्हीं अकलंक ने उड़ीसा के रत्नसंचयपुर में छह माह तक शास्त्रार्थ करके अपने प्रतिद्वन्द्वियों को हराया था । उसके बाद उन्हें 'भट्ट' की उपाधि से विभूषित किया गया था। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं - 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक', 'अष्टशती', 'न्यायविनिश्चय', 'सिद्धिविनिश्चय', 'लघीयस्त्रयी', और 'प्रमाण संग्रह' । आचार्य रविकीर्ति के बाद उन्हें ही इस जैन गुरुकुल का अध्यक्ष बनाया गया था । मेटी मन्दिर में आचार्य रविकीर्ति का जो प्रसिद्ध शिलालेख आज भी लगा है, उसके अनुसार इसका निर्माण 634 ईस्वी में हुआ होगा । इस लेख में इसे 'आचार्य रविकीर्ति द्वारा निर्मापित' कहा गया है । सम्बन्धित पंक्तियाँ इस प्रकार हैं "सत्याश्रयस्य परमाप्तवता प्रसादम् शैलं जिनेन्द्रभवनं भवनं महिम्नाम् । निर्मापितं मतिमता रविकीर्तिनेदम् ॥” यहाँ सत्याश्रय से आशय चालुक्यनरेश पुलकेशी द्वितीय से है । उसका दूसरा नाम सत्याश्रय था । लेख में कहा गया कि सत्याश्रय की कृपा से या उसकी प्रसन्नता से आचार्य रविकीर्ति ने इस शैलमन्दिर का निर्माण कराया । समय के थपेड़ों ने इस मन्दिर को काफी नुकसान पहुँचाया है, ऐसा कुछ वास्तुविदों का
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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