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________________ ऐहोल / 45 संतति में पुलकेशी प्रथम हुआ जो वीर और कुशल शासक था। उसने भी जैन मन्दिर के लिए दान दिया था। उसके राज्य में जैनधर्म का खूब प्रचार था और उसके समय में ऐहोल एक प्रमुख जैन केन्द्र बन गया था। उसका पुत्र कीर्तिवर्मन जैनधर्म का अनुयायी था। उसने 567ई. में जैन मन्दिर के लिए दान दिया था। विख्यात जैन इतिहासज्ञ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन के अनुसार, उसी के समय में 585 ई. में यहाँ मेगुटी नामक जैन मन्दिर बना और एक गुरुकुल की स्थापना हुई । कीर्तिवर्मन के बाद राज्य उसके भाई मंगलीश के हाथों में चला गया। उसने राजधानी ऐहोल से हटाकर वातापि (आधुनिक बादामी) में स्थापित की। मंगलीश ने 597 से 608 ई. तक राज्य किया। उसके समय में ही चालुक्यों के एक उपराजा की पत्नी की कोख से महाराष्ट्र के अलकाक नगर (अल्तेम) में जैनाचार्य अकलकदेव का जन्म हुआ था। उसी काल में बादामी की प्रसिद्ध शैल-गुफाओं (Rock caves) का निर्माण प्रारम्भ हुआ। . चालुक्य वंश का सबसे प्रसिद्ध, शक्तिशाली तथा अपने राज्य का समुद्र-तट तक और रेवा नदी तक विस्तार करने वाला राजा पुलकेशी द्वितीय हुआ। उसने 608 से 642 ई. तक शासन किया। उसका अपर नाम या उपाधि 'सत्याश्रय' थी। उस समय उत्तर भारत में कन्नौज का हर्षवर्धन कलिंग और गुजरात के मार्गों से दक्षिण भारत तक अपना साम्राज्य फैलाना चाहता था। किन्तु पुलकेशी द्वितीय ने उसके अनेक प्रयत्न विफल करके 'परमेश्वर' उपाधि धारण की थी। दोनों ही शासक शक्तिशाली थे। हर्षवर्धन बौद्धधर्म के प्रति अधिक आकृष्ट था तो पुलकेशी द्वितीय जैनधर्म की ओर । दोनों ही अन्य धर्मों का आदर करते थे। जैनधर्म के प्रति पुलकेशी द्वितीय की विशेष प्रीति का प्रमाण है ऐहोल स्थित 'मेगुटीमन्दिर' की पूर्वी दीवाल पर उत्कीर्ण जैनाचार्य रविकीति द्वारा लिखा गया शिलालेख जो आज भी विद्यमान है । यह शिलालेख शक संवत् 556 का है यानी ईस्वी सन् 634 का। इस शिलालेख में, जो कि संस्कृत में है, आचार्य रविकीति ने चालुक्यों की वंशावली देते हुए पुलकेशी द्वितीय के पराक्रम, विजय और गुणों का वर्णन काव्यमय शैली में किया है । पुलकेशी ने आचार्य रविकीति को पर्याप्त रूप से सम्मानित किया था। उसने मेगुटी मन्दिर के लिए सम्भवतः दान भी दिया था । आचार्य रविकीर्ति स्वयं अपने को कालिदास और भारवि को कोटि का कवि मानते थे। यह तथ्य इस शिलालेख में उल्लिखित है। आचार्य अकलंकदेव भी इन्हीं रविकीति के शिष्य बताये जाते हैं। इस राजा के समय में चीनी यात्री ह्वनसांग भी भारत आया था। उसके यात्रा-विवरण से भी ज्ञात होता है कि पुलकेशी द्वितीय के समय में कर्नाटक तथा शेष दक्षिण भारत में जैनों, जैन साधुओं एवं जैन मन्दिरों की संख्या बौद्धों से कहीं अधिक थी। इस समय पुलकेशी द्वितीय वातापि (आधुनिक बादामी) में शासन कर रहा था। उसने ईरान के शासक से भी उपहारों का आदान-प्रदान कर मित्रता स्थापित की थी। दक्षिण के शासक पल्लवेश नरसिंहवर्मन् से एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। उसके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य प्रथम 'साहसांक' या 'साहसतुंग' (642-680 ई.) को भी पल्लवनरेश से युद्धों में अपना जीवन बिताना पड़ा। वह भी जैनधर्म का समर्थक था। उसी के समय में अकलंकदेव ने कलिंग देश की राजधानी रत्नसंचयपुर में बौद्धों से शास्त्रार्थ कर उन्हें हराकर 'भट्ट' उपाधि ग्रहण की थी। . चालुक्य वंश के उत्तरवर्ती राजा भी जैनधर्म के प्रति उदार थे और उन्होंने अनेक जिनालयों को पर्याप्त दान दिया था।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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