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________________ 26 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) बसें भी पर्यटकों, यात्रियों को सबसे पहले स्तवनिधि ले जाती हैं। इसकी सुविधाजनक स्थितिराष्ट्रीय राजमार्ग-के कारण भी यहाँ पहुँचना आसान होता है। क्षेत्र-परिचय इस क्षेत्र की प्रसिद्धि ब्रह्मदेव (यक्ष) के कारण है। वे जैन-अजैन सभी से आदर एवं श्रद्धा प्राप्त करते हैं। कन्नड़ भाषा में इन ब्रह्मदेव को 'भरमप्पा' कहा जाता है। स्तवनिधि का जैन मन्दिर प्राचीन जान पड़ता है और पाषाण निर्मित है । उसके पीछे की पहाड़ी का भी उसके निर्माण में पर्याप्त लाभ उठाया गया है। मन्दिर के आसपास पत्थरों की दीवाल का परकोटा है। मुख्य सड़क और क्षेत्र के बीच यक्षी पद्मावती का एक मन्दिर है। मन्दिर के सामने 30 फुट ऊँचा एक मानस्तम्भ है किन्तु उसके ऊपर मूर्ति नहीं है। बिजली गिरने से मूर्ति ध्वस्त हो गई या निकल गई। मूर्ति का निशान मन्दिर की ऊपरी मंज़िल (प्रथम तल) से दिखाई देता है। यहाँ के मन्दिर की रचना इस प्रकार है-मन्दिर में तीन देवकोष्ठ हैं। और इन सभी के सामने पाषाण के मोटे स्तम्भों पर आधारित खुला बरामदा या हॉल है। __ मन्दिर की अधिकांश मूर्तियाँ 9वीं और 10वीं सदी की हैं। प्रथम देवकोष्ठ के बाहर नागरी लिपि में लिखा है-'श्री 1008 चिन्तामणि तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ' । ये इस कोष्ठ के नायक प्रतीत होते हैं और फणावली युक्त हैं। यहीं, इसी कोष्ठ में, ग्यारहवीं सदी की लगभग सवा दो फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान आदिनाथ की मूर्ति है । उनका चिह्न बैल पादमूल में अंकित है। वहीं यक्ष-यक्षी भी उत्कीर्ण हैं । मूर्ति के अलंकरण के रूप में मकर-तोरण की योजना है। इसमें अन्य मूर्तियाँ भी हैं । इस एक कोष्ठ को भी दो देवकोष्ठ के रूप में विभाजित कर दिया गया है। इसके सामने खुली जगह भी कम है। ___ दूसरे देवकोष्ठ (बीच) के प्रवेश-द्वार पर नागरी में लिखा है '1008 श्री विघ्नहर पार्श्वनाथ तीर्थंकर'। इस कोष्ठ के गर्भगृह में मूलनायक पार्श्वनाथ विराजमान हैं। इन्हें नवखंड पार्श्वनाथ (देखें चित्र क्र. 10) कहा जाता है । कहा जाता है कि पार्श्वनाथ की मति को जमीन से निकालते समय इसके नौ टुकड़े हो गए थे। नवखण्ड पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं। उन पर सात फणों की छाया है और छत्रमय हैं। सर्पकुण्डली पीछे तक गई है। मकर-तोरण में फूलपत्तियों की डिजाइन है। यक्ष-यक्षियों का अंकन नहीं है। इसी कक्ष में कांस्य की नवदेवता की मति है। ब्रह्मयक्ष की मति के अतिरिक्त, संगमरमर की डेढ़ फुट और ढाई फुट की दो पद्मासन मूर्तियाँ भी हैं। कांस्य के ही क्षेत्रपाल के चरण हैं। ब्रह्मदेव की कांस्य प्रतिमा भी तोरणयुक्त है। उनका वाहन अश्व है। लगभग चार फुट ऊँची पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में एक प्रतिमा और है। सप्तफणावली और छत्रत्रय के साथ ही बेलबूटे से युक्त पाँच पंक्तियों का तोरण है। इस प्रतिमा के पैरों के पास चँवरधारी भी अंकित हैं । यह एक बड़ी भव्य एवं आकर्षक प्रतिमा है। लगभग 9 इंच ऊँची पद्मावती की मूर्ति भी इसी कक्ष में है।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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