SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) तृतीय (939-967 ई०) के शासनकाल में कन्नड भाषा में 'शान्तिपुराण' (शान्तिनाथ का जीवन चरित) की रचना की थी। कन्नड भाषा के तीन सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ हैं—पहला पम्प कवि का 'आदि पुराण', दूसरा रन्न कवि का 'अजितपुराण' और तीसरा कवि पोन्त का 'शान्तिपुराण' । अपनी श्रेष्ठ उपमाओं के कारण कवि पोन्न को कन्नड़ साहित्य में वही स्थान प्राप्त है जो कि संस्कृत साहित्य में महाकवि कालिदास को। अपभ्रंश साहित्य के क्षेत्र में भी मान्यखेट या राष्ट्रकूट शासन-काल पीछे नहीं रहा, या यों कहें कि अग्रणी रहा । प्रसिद्ध अपभ्रंश महाकवि पूष्पदन्त ने अपनी अपभ्रश अमर रचना 'महापुराण' (तिस ट्ठि महापुरिसगुणालंकारु-त्रेसठ महापुरुषों के गुणों का वर्णन, जो हिन्दी अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है) का प्रणयन इसी काल में किया था। .. इस महाकवि ने मान्यखेट को नष्ट होते देखा था। इस सम्बन्ध में प्रस्तुत है-डॉ० हीरालाल जैन को पुस्तक 'भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान' से एक उद्धरण : “संवत् 1029 के लगभग जब धारा के परमारवंशी राजा हर्षदेव के द्वारा मान्यखेट नगरी लूटी और जलाई गई, तब महाकवि पूष्पदन्त के मुख से हठात् निकल पड़ा कि 'जो मान्यखेट नगर दोनों और अनाथों का धन था, सदैव बहुजनपूर्ण और पुष्पित उद्यान-वनों से सुशोभित होते हुए ऐसा सुन्दर था कि वह इन्द्रपुरी की शोभा को भी फोका कर देता था, वह जब धारानाथ को कोपाग्नि से दग्ध हो गया तब, अब पुष्पदन्त कवि कहाँ निवास करे।” (अपभ्रंश महापुराण, सन्धि 50) महाकवि पुष्पदन्त की दो और महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं-'जायकुमार चरिउ' (नागकुमार चरित) और 'जसहर चरिउ' (यशोधर चरित)। मान्यखेट में इस अवधि में भी इतनी सुन्दर एवं विशाल रचनाएँ महाकवि पुष्पदन्त द्वारा प्रस्तुत किया जाना यह सिद्ध करता है कि उनके समय में मान्यखेट तथा उसके आसपास के क्षेत्र में अपभ्रंश का व्यापक प्रचार और पठन-पाठन था। यदि कोई यह कहे कि अपभ्रंश उन्होंने उत्तर भारत के किसी स्थान पर सीखी होगी तो उसे यह भी सोचना चाहिए कि उनकी रचनाओं के पाठक तो उनके ही क्षेत्र के रहे होंगे और उनकी समझ के बाहर की भाषा में वे अपनी रचनाएँ क्यों प्रस्तुत करते? श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख के अनुसार, राष्ट्रकूटनरेश इन्द्रराज चतुर्थ ने राजपाट त्यागकर मुनिवेश धारण किया था और समाधिमरणपूर्वक चन्द्रगिरि (श्रवणबेलगोल) पर अपनी देह त्यागी थी। लगभग दो सौ वर्षों तक जैनधर्म, दर्शन, आचार और संस्कृत, अपभ्रश तथा कन्नड की यह ‘साहित्यक एवं दार्शनिक राजधानी' अब सिकुड़कर केवल एक ग्राम रह गई है, यही विषाद का विषय है। यदि मलखेड की यात्रा की ही जाती है तो पर्यटक को अगले पर्यटक-स्थल बीजापुर की ओर प्रस्थान करने के लिए वापस गुलबर्गा लौट आना चाहिए।
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy