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________________ 272 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) में खण्डित मूर्तियाँ रखी हैं। दानशाले बसदि–सम्भवतः यहाँ दान दिया जाता होगा इस कारण यह बसदि दानशाले कहलाती है। छोटा-सा यह मन्दिर अक्कन बसदि के निकट ही स्थित है। इसमें पंचपरमेष्ठी की तीन फुट ऊँची प्रतिमाएँ हैं। कन्नड़ कवि चिदानन्द के काव्य 'मुनिवंशाम्युदाय' में उल्लेख है कि मैसूर के चिक्क देवराज ओडेयर ने अपने पूर्ववर्ती नृप दोड्डु देवराज ओडेयर के समय (16591672 ई.) में श्रवणबेलगोल की यात्रा की थी। उन्होंने यहाँ की दानशाला बसदि के दर्शन किए और मैसूर-नरेश से 'मदनेय' नामक गाँव दान करवाया। सिद्धान्त बसदि-इसकी प्रसिद्धि इस नाम से होने का कारण यह बताया जाता है कि यहाँ जैन धर्म के सिद्धान्त ग्रन्थ रखे जाते थे। धवला, जयधवला, महाधवला यहीं पर सुरक्षित थे किन्तु कभी किसी संकट के कारण मडबिद्री में स्थानान्तरित कर दिए गए थे। अब ये ताडपत्र पर लिखित ग्रन्थ प्रकाशित भी हो चके हैं और प्राचीन ग्रन्थों में उनकी गणना होती है। उपर्युक्त मन्दिर में एक पाषाण पर चौबीसी उत्कीर्ण है जिसके मूलनायक पार्श्वनाथ हैं। एक अधूरे लेख से ज्ञात होता है कि 1698 ई. में 'तातीराव सुदीपरा पमघदेव' ने यह चौबीसी प्रतिष्ठापित करवाई थी। नगरजिनालय या श्रीनिलय-इसके नाम से ही स्पष्ट है कि नगर के प्रमुख व्यापारी जन इस मन्दिर या तीर्थंकर-निलय की देखभाल करते थे। इस कारण यह मन्दिर नगर-जिनालय कहलाया। एक शिलालेख के अनुसार, होय्सलनरेश बल्लाल के 'पट्टणस्वामी' तथा नयकीर्ति सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य मन्त्री नागदेव ने सन् 1196 ई. में इसका निर्माण कराया था। यह भी उल्लेख है कि नागदेव ने कमठ पाश्वनाथ बसदि (पाश्वनाथ बसदि) के सम्मुख नत्यरंग और अश्मकुट्टिम (पाषाण-भूमि) तथा अपने गुरु की निषद्या का भी निर्माण कराया था। इसी मन्त्री ने 'नाग सरोवर' नामक एक तालाब भी बनवाया था जो अब 'जिगणेकट्टे' कहलाता है। नगरजिनालय एक छोटा मन्दिर है । इसका निर्माण गहरे नीले रंग की शिलाओं से हआ है। इसके मूलनायक आदिनाथ थे किन्तु अब सुपार्श्वनाथ की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह मूर्ति भी प्राचीन है। यहाँ ब्रह्मदेव की भी प्रतिमा है। उनके एक हाथ में कोड़ा और दूसरे में फल है। वे पैरों में खडाऊँ पहने हैं । उनकी पीठिका पर घोड़े का चिह्न बना है जो कि उनका वाहन है। उपर्यक्त मन्दिर के भीतरी द्वार के उत्तर में एक शिलालेख है। उसमें कहा गया है कि (1) इस जिनालय के पुजारियों ने बेलगोल के व्यापारियों को यह लिख दिया कि जब तक मन्दिर की भूमि में धान्य पैदा होता रहेगा, वे पूजा-अर्चना करते रहेंगे, (2) इस जिनालय के आदिनाथ के अभिषेक के लिए हलिगेरे के सोवण्ण ने पाँच 'गद्याण' का दान दिया जिसके ब्याज से प्रतिदिन एक 'बल्ल' दुग्ध लिया जाए तथा (3) बेलगोल के जौहरियों ने जिनालय के जीर्णोद्धार तथा एक प्रतिशत आय दान करने की प्रतिज्ञा की। यह भी उल्लेख है कि जो भी इसमें कपट करे वह निस्सन्तान हो, और देव, धर्म तथा राज का द्रोही हो। ___ मंगायि बसदि-इसे त्रिभुवनचूड़ामणि भी कहते हैं। यह अन्तिम नाम भी शिलालेख में है। सन् 1325 ई. के शिलालेख में, जो कि प्रवेशमार्ग के बायीं ओर है, कहा गया है कि अभिनव चारुकीति पण्डिताचार्य के शिष्य मंगायि ने इसका निर्माण कराया। एक विद्वान् के अनुसार
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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