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________________ 254 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) कॉलेज का हॉस्टल दिखाई देता है जो कि गाँव से कुछ दूरी पर है। भगवान गोमटेश्वर की मूर्ति के सामने पत्थर का एक प्राचीन कटघरा है। ललित सरोवर-गोमटेश्वर की मूर्ति के बाएँ पैर के पास पत्थर का एक छोटा-सा कुण्ड है जिसे 'ललित सरोवर' कहा जाता है। गन्धोदक का जल इसमें इकटठा होता है और का जल इसमें इकट्ठा होता है और अधिक हो जाने पर भूमिगत नाली के द्वारा परकोटे के नीचे से होता हुआ कुण्ड में पहुँच जाता है, ऐसा कहा जाता है। जो भी हो, पानी बाहर जाने की प्रणाली तो अवश्य होगी ही। महामूर्ति के दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी की भव्य मूर्तियाँ हैं। उनके हाथों में चँवर हैं। भट्टारक जी का आसन-गोमटेश्वर की दाहिनी ओर भट्टारक जी का आसन है। पादपूजा के समय भट्टारक जी के चरण प्रक्षालित किए जाते हैं । उस समय वे आसन पर बैठकर कार्यकर्ताओं को नारियल वितरित करते हैं । गोमटेश्वर बाहुबली गोमटेश्वर भगवान बाहुबली की यह अतिशयसम्पन्न, चर्चित, विशाल एवं भव्य मूर्ति एक प्रफुल्ल पाषाण-कमल पर खड़ी हुई प्रदर्शित है (देखें चित्र क्र. 95)। पूरे पर्वत-खण्ड में से इतनी विशाल मूर्ति का आकार कल्पना में उतारने और भारी हथौड़ी तथा छैनियों की नाजुक तराश से मूति का अंग-अंग उकेरने का काम जितनी एकाग्रता और संयम-साधना से हुआ होगा, इसकी कल्पना करने पर रोमांच हो उठता है । नुकीली और संवेदनशील नाक, अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्य स्मित ओष्ठ, किंचित् बाहर को निकली हुई ठोड़ी, सुस्पष्ट कपोल, पिण्डयुक्त कान, मस्तक तक छाये हुए घुघराले केश आदि इन सभी से दिव्य आभा वाले मुख-मण्डल का निर्माण हुआ है। बलिष्ठ विस्तृत पृष्ठभाग का कलात्मक निर्माण, आठ मीटर चौड़े बलशाली कन्धे, चढ़ाव-उतार रहित कुहना और घुटनों के जोड़, संकीर्ण नितम्ब जिनकी चौड़ाई सामने से तीन मीटर है और अत्यधिक गोल है, ऐस प्रतीत होते ह मानो मूर्ति को संतुलन प्रदान कर रहे हों। भीतर को ओर उकेरी गई नालोदार रीढ़, सुदृढ़ और अडिग चरण, सभा उचित अनुपात में मूर्ति-कला को उन अप्रतिम परम्पराओं की आर संकेत करते हैं जिनका शारीरिक प्रस्तुति से काई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि तीर्थंकर या साधु का अलौकिक व्यक्तित्व केवल भौतिक जगत् की कोई सत्ता नहीं, उसका निजत्व तो आध्यात्मिक तल्लीनता के आनन्द में है । त्याग की परिपूर्णता निरावरण नग्नता में है। सुदृढ़ निश्चय, कठोर साधना और आत्म-नियन्त्रण की परिचायक है यह खड्गासन मुद्रा। इस मूर्ति का निर्माण किस महान् शिल्पी ने किया, यह ठोक से ज्ञात नहीं हो सका। कुछ विद्वान इसे 'त्यागद' की कृति मानते हैं तो कुछ अरिष्टनेमि की। 'त्यागद' नाम नहीं जान पड़ता, बह त्याग या दान का स्थान सूचित करता है। हाँ, अरिष्टनेमि का नाम सामने की पहाड़ी 'चन्द्रगिरि' पर भरतेश्वर की मूर्ति के पास एक शिला पर अंकित है। मूर्ति के प्रतिष्ठा-काल को लेकर भी अनेक मत प्रचलित हुए। यदि त्यागद ब्रह्मदेव स्तम्भ के तीन ओर का शिलालेख नहीं घिसवा दिया गया होता तो शायद इसके निर्माण-काल का ठीक-ठीक पता चल जाता। अस्तु, कवि दोडय्य द्वारा रचित 'भुजबलीचरित' (1550 ई.) के
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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