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30 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
बसदियों के लिए दान दिया था। ये राजा 1114 ई. से लगभग 1384 ई. तक राज्य करते रहे। इस वंश का राजा कुलशेखर-अलुपेन्द्र तृतीय मूडबिद्री के पार्श्वनाथ का परमभक्त था। देखिए 'मूडबिद्री' प्रकरण । बंगवाडि वंश का वंश
__ अलुपवंश के बाद तुलुनाडु में इस वंश ने राज्य किया (देखिए 'मूडबिद्री') संगीतपुर के सालुव मण्डलेश्वर
संगीतपुर या हाडहल्लि (उत्तरी कनारा या कारवाड जिला के के समद्ध नगर में इस वंश ने पन्द्रहवीं शताब्दी में राज्य किया। महामण्डलेश्वर सालुवेन्द्र भगवान चन्द्रप्रभ का बड़ा भक्त था। उसके मन्त्री ने भी पार्श्वनाथ का एक चैत्यालय पद्माकरपुर में बनवाया था। चोटर राजवंश
मूडबिडी को अपनी राजधानी बनाने वाले इस वंश के राजा 1690 ई. में स्वतन्त्र हो गए थे। इस वंश ने लगभग 700 वर्षों तक मुडबिद्री में राज्य किया। इनके वंशज और इनका महल आज भी मूडबिद्री में विद्यमान हैं । वे जैनधर्म का पालन करते हैं और शासन से पेंशन पाते हैं । (देखिए 'मूडबिद्री') भैररस वंश
कारकल का यह राजवंश हुमचा के परम जिनभक्त राजाओं की एक शाखा ही था । यह वंश जैनधर्म का अनुयायी रहा । इसी वंश के राजा वीरपाण्ड्य ने सन् 1432 ई. में कारकल में बाहुबली की 41 फुट 5 इंच ऊँची प्रतिमा निर्माण कराकर वहाँ की पहाड़ी पर स्थापित की थी जिसकी आज भी वन्दना की जाती है। इस वंश के विवरण के लिए देखिए 'कारकल' प्रकरण । अंजिल वंश
अपने आपको चामुण्डराय का वंशज बताने वाला यह वंश बारहवीं सदी में उदित हुआ। इसका शासन-क्षेत्र वेणूर था । वेणूर ही इसकी राजधानी रही और इसका प्रदेश तुलनाडु के अन्तर्गत सम्भवतः पुंजलिके कहलाता था। यह वंश प्रारम्भ से अन्त तक जैनधर्म का अनुयायी रहा। इसी वंश के शासक तिम्मराज ने 1604 ई. में वेणूर में बाहुबली की 35 फट ऊँची प्रतिमा स्थापित की थी जो आज भी पूजित है। इस वंश के वंशज आज भी विद्यमान हैं और सरकार से पेंशन पाते हैं। उनका महल भी अस्तित्व में है। (देखिए 'वेणूर' प्रकरण)
कर्नाटक के उपर्युक्त संक्षिप्त इतिहास पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस राज्य में जैनधर्म की विद्यमानता एवं मान्यता अत्यन्त प्राचीन है। कम-से-कम महावीर स्वामी के समय में तो वहाँ जैनधर्म का प्रचार था जो कि पार्श्वनाथ-परम्परा की ही प्रवहमान धारा मानी जाए तो कोई बहुत बड़ी ऐतिहासिक आपत्ति नहीं उठ सकती है, क्योंकि पार्श्वनाथ यहाँ तक कि भगवान नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष मान लिए गए हैं। इसी प्रकार कर्नाटक के लगभग हर छोटे या बड़े राजवंश ने या तो स्वयं जैनधर्म का पालन किया या उसके प्रति अत्यन्त उदार दृष्टिकोण अपनाया। मध्ययुग की ऐतिहासिक या राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए भी यह निष्कर्ष अनूचित नहीं होगा कि कर्नाटक में प्रचुर राज्याश्रय प्राप्त होने के कारण बहुसंख्य प्रजा का धर्म भी जैनधर्म रहा होगा।