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________________ कर्नाटक में जैन धर्म | 29 अन्त तक जैनधर्म का अनुयायी बना रहा। जो भी हो, इस वंश के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है। चंगाल्व वंश इस वंश का शासन कर्नाटक के चंगनाडु (आधुनिक हुणसूर तालुक) में था, जो कि आगे चलकर पश्चिम-मैसूर और कूर्ग जिलों तक फैल गया। इस वंश से सम्बन्धित अधिकांश शिलालेख ग्यारहवीं-बारहवीं सदी के हैं। किन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी में भी यह वंश अस्तित्व में था। ये चोल एवं होय्सल नरेशों के सामन्त रहे प्रतीत होते हैं। इस वंश के अधिकांश राजा शैव मत को मानते थे किन्तु 11-12वीं सदी में ये जिनभक्त थे। उपर्युक्त वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा वीरराजेन्द्र चोल नन्नि चंगांल्व ने चिक्क हनसोगे नामक स्थान पर देशीगण पुस्तकगच्छ के लिए जिनमन्दिर का निर्माण लगभग 1060 ई. में कराया था। उसी स्थान की एक बसदि का उसने जीर्णोद्धार कराया था जिसके सम्बन्ध में यह प्रसिद्धि थी कि उसका निर्माणश्री रामचन्द्र ने करवाया था। सन् 1080 ई. के एक शिलालेख से , जो कि हनसोगे की बसदि में नवरंग-मण्डप के द्वार पर उत्कीर्ण है, यह प्रतीत होता है कि इस चंगाल्व तीर्थ में आदीश्वर, शान्तीश्वर, नेमीश्वर आदि जिनमन्दिर थे जो भट्टारक या मुनियों के संरक्षण में थे एवं चंगाल्वनरेश ने उनका जीर्णोद्धार कराया था। चंगाल्वनरेश मरियपेर्गडे पिल्दुवय्य ने 'पिल्दुवि-ईश्वरदेव' नामक एक बसदि का निर्माण 1091 ई. के लगभग कराया था। मुनियों को भी आहार-दान दिया था। श्रवणबेलगोल के 1510 ई. के एक शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि इस वंश के एक नरेश के मन्त्री-पुत्र ने गोम्मटेश्वर की ऊपरी मंजिल का निर्माण कराया था। निडुगल वंश उत्तर मैसूर के कुछ भाग पर राज्य करनेवाले इस वंश के शासन सम्बन्धी उल्लेख तेरहवीं शताब्दी के प्राप्त होते हैं । अमरापुर तथा निडुगल्लु बेट्ट (जैन बस दि) के शिलालेखो से ज्ञात होता है कि ये राजा स्वयं को चोलवंश के तथा ओरेयुरपुरवराधीश कहते थे। उपयुक्त वंश के इरुगोल के शासनकाल में मल्लिसेट्रि ने तैलंगेरे बसदि के प्रसन्न पार्श्वनाथ के लिए सुपारी के दो हजार पेड़ों के हिस्से दान में दिये थे। इसी राजा के पहाड़ी किले का नाम कालाजन था। उसकी चोटियाँ ऊंची होने के कारण वह 'निडुगल' कहलाया। उसी के दक्षिण में गंगेयनमार ने एक पार्श्व जिनालय बनवाया था। अपने इस धर्मप्रेमी गंगेयन की प्रार्थना पर राजा इरंगोल ने पार्श्वनाथ की दैनिक पूजा, आहारदान आदि के लिए भूमि का दान किया था। वहां के किसानों ने भी अखरोट और पान का दान किया था तथा किसानों ने अपने कोल्हुओं से तेल ला-लाकर दान में दिया था। ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस राजा को विष्णुवर्धन ने हराया था। अलुप वंश इसका शासन-क्षेत्र तुलनाडु (मूडबिद्री के आसपास का क्षेत्र) था। दसवीं सदी में तौलव देश के प्रमुख जैनकेन्द्र थे मूडबिद्री, गेरुसोप्पा, भटकल, कारकल, सोदे, हाडुहल्लि और होन्नावर। इनमें से कुछ तो अब भी प्रमख जैन केन्द्र हैं। इस वंश के शासकों ने जैनधर्म को राज्याश्रय भी प्रदान किया था और अनेक जैन
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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