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श्रवगबेलगोल / 237
इसी प्रकार का स्वप्न उनकी माता और आचार्य नेमिचन्द्र को भी आया । देवी के आदेशानुसार और आचार्य के परामर्श के अनुसार, चामुण्डराय ने वैसा ही करने का निश्चय किया । जब उन्होंने सोने का तीर छोड़ा तो आश्चर्य ! बाहुबली के मस्तक की स्थूल रूपरेखा प्रकट हो गयी । इस अनुश्रुति के रूपक के रहस्य को सम्भवतः नहीं समझते हुए कुछ लोगों ने यह धारणा बना ली कि विन्ध्यगिरि पर गोमटेश्वर बाहुबली की मूर्ति तो पहले से ही मौजूद थी, चामुण्डराय ने तो उसे केवल 'प्रकट किया है। इस विश्वास को और भी हवा कुछ लेखकों के इस कथन ने कि यह मूर्ति तो राम के युग की है। राम ही लंका से वापस लौटते समय इसे विन्ध्यगिरि पर छोड़ गए थे । किन्तु इस पौराणिक-सी अनुश्रुति का अर्थ यही है कि चामुण्डराय और आचार्य नेमिचन्द्र बाहुबली की विशाल मूर्ति का निर्माण कराने हेतु 'शिला-शोधन' के लिए निकले थे। इस प्रकार की मूर्ति का निर्माण करने के लिए सबसे पहले ऐसी ठोस, चिकनी और कठोर चट्टान देखी जाती है जो कि छिद्रों से रहित हो । फिर, मंत्रादि से उसकी पूजा निर्विघ्न मूर्ति निर्माण के लिए की जाती है और उसका 'तक्षण' मंत्रों से पवित्र छैनी या औजार से किया जाता है और मूर्ति को बनवाने वाला ही पहली छैनी चलाता है। इस प्रसंग में मंत्रशुद्ध सोने का तीर चामुण्डराय ने चलाया था । मूर्ति निर्माण सम्बन्धी अनेक जैनग्रंथों में प्रतिष्ठाशास्त्र प्रमुख है । उसमें भी इस प्रकार का विधान है। कारकल की 41 फीट 5 इंच ऊँची बाहुबली मूर्ति के निर्माण के सम्बन्ध में भी हम देख चुके हैं कि मूर्ति-निर्माता राजा उपयुक्त शिला की खोज में निकला था और नेल्लिकर नामक स्थान पर शिला की उपयुक्त पूजा आदि की थी (देखिए ‘कारकल’)।
मूर्ति पर हुए व्यय और कलाकार की लगन सम्बन्धी दो रोचक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैंशर-संधान के बाद चामुण्डराय ने प्रधान शिल्पी को नियुक्त किया और उससे पूछा, "बोलो, तुम मूर्ति निर्माण का क्या पारिश्रमिक लोगे ?" शिल्पी ने मन-ही-मन विचार किया कि sait बड़ी प्रतिमा के निर्माण में जो व्यय होगा उसे चामुण्डराय क्या दे पाएँगे । चतुर सेनापति मंत्री उसके भाव को ताड़ गए। उनके कुरेदने पर शिल्पी बोला, "इसमें बहुत समय लगेगा ।" चामुण्डराय ने कहा, "ठीक है, तुम सकुचा रहे हो । अपने मन का संशय दूर करो। मैं तुम्हें, जितना पाषाण तुम छीलोगे (तक्षण करोगे ) उसकी तौल बराबर सोना पारिश्रमिक में देता जाऊँगा ।” शिल्पी आश्वस्त हुआ और दोनों में यह तय हुआ कि मूर्ति का स्थूल आकार वह छाँट लेगा और उसके बाद उसकी छैनी जितना पाषाण तराशेगी उतना उसे सोना मिलेगा । शिल्पी को बाहुबली-भरत की कथा समझाई गई और प्रधान-शिल्पी तथा अन्य सहायकों द्वारा मूर्ति-निर्माण का कार्य प्रारम्भ हो गया । किन्तु तभी एक घटना घट गई। जब प्रधान शिल्पी अपने पारिश्रमिक का ढेर सारा सोना लेकर अपनी माता के सामने पहुँचा और उसके चरणों में उसने वह स्वर्णराशि रखी तो उसके हाथ सोने से चिपक गए । माता चिन्तित होकर आचार्य नेमिचन्द्र के पास दौड़ी-दौड़ी गई और उनसे समाधान या संकट से मुक्ति का उपाय पूछा। आचार्य ने उसे बताया कि लोभ के कारण तुम्हारे पुत्र की यह दशा हुई है। वापस आकर शिल्पी की माता ने अपने पुत्र से कहा, 'बेटा, एक पुत्र चामुण्डराय है जो अपनी माता की खातिर सोने से अपनी जान छुड़ा रहा है और एक तू है कि अपने को और अपनी माता को सोने के जाल में फँसा रहा है ।