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________________ श्रवणबेलगोल | 225 ही नहीं किया, वह नगर के बाहर ही रुक गया । चक्रवर्ती, सेनापति, मन्त्री, पुरोहित और नगरवासी सभी आश्चर्यमिश्रित चिन्ता में पड़ गए। भरत के पूछने पर निमित्तज्ञानी ने बताया कि जब तक पूरी तरह दिग्विजय नहीं हो जाती, तब तक चक्र राजधानी में प्रवेश कर विश्राम नहीं लेगा। चक्रवर्ती को जब यह ज्ञात हुआ कि अभी उनके सभी निन्यानवे भाइयों और बाहुबली ने उन्हें नमस्कार नहीं किया है, वे चिन्तित हो उठे । इस पर भरत को परामर्श दिया गया कि वे शान्तिपूर्ण समाधान के रूप में अपने भाइयों के पास पत्र एवं भेंट सहित दूत भेजें जो उन्हें समझाये कि चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार करने में ही उनका हित है। महाराज भरत ने वैसा ही किया। भरत के दूत जब उनके निन्यानवें भाइयों के पास पहुँचे तो सभी का यह एकमत उत्तर था-"यह राज्यरूपी ऐश्वर्य हमारे पिता का दिया हुआ है। हम उनकी ही आज्ञा का पालन कर सकते हैं। बड़े भाई भरत पूज्य अवश्य हैं किन्तु हम अपने पिता ऋषभदेव के आदेशानुसार ही चलेंगे।" अन्त में भरत के स्वाभिमानी भाइयों ने कैलाश पर ऋषभदेव के पास जाकर उनसे दीक्षा ले ली। पोदनपुर में भरत का दूत बाहुबली के बारे में भरत को विशेष चिन्ता थी । उन्हें साम, दाम, दण्ड, भेद से भी वश में करना कठिन लगा, अतः उन्होंने कोमल वचनों द्वारा प्रयत्न करने का निश्चय किया और निःसृष्टार्थ दूत (जिसे स्वामी का कार्य सिद्ध करने के सभी अधिकार दिए जाते हैं) भेजा। दूत जब पोदनपुर पहुँचा तो राजसभा में ऊँचे-पूरे, सुदृढ़ शरीर वाले कान्तिमान बाहुबली को देख पहले तो वह घबड़ाया किन्तु प्रणाम कर कुछ आश्वस्त हआ। बाहबली के पूछने पर दुत ने बड़ी विनम्रतापूर्वक कहा, "हम तो केवल स्वामी का सन्देश लाये हैं। हमारा यही अनुरोध है कि चक्रवर्ती ने जो आज्ञा दी है उसे आप स्वीकार कर लें। महाराज भरत राजाओं में प्रथम हैं, आपके बड़े भाई हैं, देवता और सभी नृपगण भी उन्हें नमस्कार करते हैं, म्लेच्छों ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है। समुद्र-तटवर्ती प्रदेशों और पृथ्वी पर उन्होंने विजय पाई है । किन्तु उनके भाई ही यदि उन्हें स्वामी मान प्रणाम न करें, यह शोभा नहीं देता। आज्ञा नहीं माननेवालों के लिए उनके पास चक्ररत्न भी है !" यह सुन बाहुबली कुछ मुस्कराए और बोले, “दूत, तू सचमुच अपने स्वामी का हितसाधक है। दूत है इसलिए तेरे वचनों के लिए भी क्षमा किया।" इसके बाद उनका स्वर धीरे-धीरे प्रखर होने लगा। उन्होंने आवेश में आते हुए कहना प्रारम्भ किया, “दूत, क्या तू नहीं जानता कि प्रतापी पुरुष के प्रति साम, दाम, दण्ड, भेद का प्रयोग व्यर्थ है। अरे, अंकुश हाथी पर ही चल सकता है, सिंह पर नहीं। ठीक है कि भरत मुझसे बड़े हैं। यह भी ठीक है कि ज्येष्ठ भ्राता नमस्कार करने योग्य हैं किन्तु यदि वह तलवार सिर पर लटकाएँ तो कैसा नमस्कार ? पिता ऋषभदेव ने उन्हें भी राजा बनाया और मुझे भी। अब वह महाराजाधिराज हो गये तो क्या हुआ ? 'भरत के मन में लोभ समा गया है, वह पिता ऋषभदेव की दी हुई पृथ्वी मुझसे छीनना चाहते हैं अतः लोभ का प्रतिकार करना होगा। जाओ, कह देना अपने स्वामी से, 'मुझे पराजित
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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