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________________ श्रवणबेलगोल / 223 वे तुम सबको लक्ष्मी प्रदान करें । जहाँ तक ऋषभदेव से कर्नाटक का सम्बन्ध है, पुराणों में उल्लेख है कि एक राजा के रूप में ऋषभदेव ने जब पृथ्वी का शासन करना स्वीकार किया तो उन्होंने सबसे पहले अपने सम्पूर्ण राज्य को ग्राम, पुर और प्रदेशों में विभाजित किया । उस समय उन्होंने अंग, बंग, पुण्ड्र, काशी, कलिंग, मगध आदि के साथ-साथ कोंकण, कर्नाटक, केरल आदि प्रदेशों की सीमाओं का निर्माण भी किया था । यह भी माना जाता है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि-विद्या में पारंगत किया था । ब्राह्मी ने तब जिन 18 अक्षरों का आविष्कार किया उनमें से कुछ अक्षर कन्नड़ के भी हैं । ऐसा भी उल्लेख है कि वैराग्य के बाद ऋषभदेव ने घोर तपस्या की थी । वे एक वर्ष तक निराहार रहे, उनकी जटाएँ बढ़ गईं और वे शीत-ताप आदि सब कुछ सहन कर लोगों को - आत्म-कल्याण का उपदेश देते हुए नगर-नगर, गाँव-गाँव घूमे, पर्वतों पर तपस्या की और जनकल्याण में निरन्तर लगे रहे । तब उनके उपदेशों का दक्षिण भारत के प्रदेशों पर भी विशेष प्रभाव पड़ा था । जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराओं में तीर्थंकर ऋषभदेव की मान्यता रही है । साथही, इस बात का भी समर्थन होता है कि ऋषभदेव के उपदेशों का कोंकण, वेंकटाद्रि (प्रदेश), कुटक प्रदेश (दक्षिण के एक प्राचीन प्रदेश का नाम) तथा दक्षिण कर्नाटक प्रदेश में पर्याप्त प्रभाव पड़ा था और वहाँ के जैन (अर्हत्) राजा उनकी जनकल्याणकारी मान्यताओं का प्रचार करने में अपनी सफलता मानते थे । इन्हीं युगादि पुरुष, कृषि-युग के प्रारम्भकर्ता, प्रथम भूपति, प्रथम योगी और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के अनेक ज्ञातनाम पुत्र थे भरत और बाहुबली । भरत- बाहुबली का हिंसारहित युद्ध ऋषभदेव द्वारा अयोध्या का राज्य दिए जाने के बाद सम्राट भरत नीतिपूर्वक प्रजापालन करने लगे। कुछ काल के बाद उन्हें एक साथ तीन सुखद समाचार मिले। सबसे प्रथम तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके पूज्य पिता को 'केवलज्ञान' प्राप्त हुआ है । इसे 'धर्म' का फल मान उन्होंने कैलाश पर्वत पर जाकर ऋषभदेव की पूजा की। दूसरा महत्त्वपूर्ण समाचार यह था कि उन्हें 'पुत्ररत्न' की प्राप्ति हुई है । इसे 'काम' का फल मान उन्होंने और नगरवासियों ने खूब उत्सव मनाया। तीसरा शुभ समाचार यह था कि उनकी आयुधशाला में 'चक्ररत्न' की उत्पत्ति हुई है । इसे 'अर्थ' का फल मान भरत ने उसकी भी पूजा की और उत्सव मनाया। उस समय उनके मन्त्रियों तथा सेनापतियों ने परामर्श दिया कि यह चक्र उनके चक्रवर्तित्व को सूचित करता है और उन्हें दिग्विजय के लिए प्रस्थान करना चाहिए । महाराज भरत की स्वीकृति मिलते ही, तुमुलनाद करने वाले नगाड़ों की घोषणा के साथ भरत की सेना ने दिग्विजय के लिए कूच कर दिया। भरत का चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चल रहा था। सैन्यबल और राजा भरत ने सबसे पहले पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान कर गंगा नदी -
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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