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________________ 216 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) होय्सलेश्वर मन्दिर : कला का अद्वितीय उदाहरण हलेबिड के इस मन्दिर (चित्र क्र. 89) को देखने के लिए प्रतिदिन सैकड़ों की संख्या में लोग आते हैं, दर्शन करते हैं, पिकनिक भी करते हैं और झुण्ड के झुण्ड चले जाते हैं। किसी समय यह मन्दिर राजधानी की प्राचीर के अन्दर था। अब वह गाँव से अलग है। अन्य चिह्नों के रूप में मिट्टी के कुछ टीले हैं और लगभग एक किलोमीटर लम्बा तालाब बचा है। होय्सलेश्वर मन्दिर का निर्माण राजा विष्णुवर्धन की मृत्यु के पश्चात् लगभग 11:0 ई. में प्रारम्भ हआ था, ऐसा अनुमान है। किन्तु यह पूरा नहीं हो सका। इसका ऊपर का भाग बना ही नहीं। सन् 1310 ई. और 1326 ई. में क्रमशः अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक के आक्रमण के कारण इसका निर्माण बन्द हो गया। इस मन्दिर में इतनी सूक्ष्म और उत्तम कारीगरी है कि ऐसा जान पड़ता है कि सेलखड़ी (पत्थर) पर नक्काशी करनेवालों ने इसमें प्रयुक्त पत्थर को शायद गीली मिट्टी समझा होगा और उसे अपनी छैनी से ऐसा रूप देते चले गए मानो वे गीली मिट्टी को साँचे में ढाल रहे हों। आइए, इसकी कुछ विशेषताएँ जानें उपर्युक्त मन्दिर एक मन्दिर नहीं है, वह द्विकूट या दो मन्दिरों का समूह है। वास्तव में दो मन्दिर एक मार्ग द्वारा आपस में जडे हुए हैं। दोनों ही शिवमन्दिर हैं। उन दोनों की आकृति तारे (star) जैसी है । प्रत्येक मन्दिर की लम्बाई 112 फुट और चौड़ाई 100 फुट बताई जाती हैं। उनकी ऊँचाई लगभग 25 फुट है। दोनों ही के सामने खुले स्तम्भों का नन्दी मण्डप (नन्दी की प्रतिमावाला) है। उनमें से एक बड़ा है और एक छोटा । ये अनुपातहीन जान पड़ते हैं और बाद में बनाए गए हैं । इन मन्दिरों में मक्खनिया रंग (Cream colour) के पत्थर का उपयोग हुआ है। यह पत्थर पास की ही खदानों से प्राप्त किया गया है। उसकी विशेषता यह बताई जाती है कि खदान से निकाले जाने पर वह नरम होता है, बाहर निकलने के कुछ समय बाद सख्त हो जाने के बाद ही उस पर छैनी चलाई जाती है । किन्तु यहाँ की दीवाल आदि में लगभग हर इंच पर बहुत ही सुन्दर नक्काशी है। उस पर पॉलिश भी चमकदार आती है। इसके स्तम्भ एक-दूसरे पर प्रतिबिम्बत होते जान पड़ते हैं। स्तम्भों पर बहत सूक्ष्म नक्काशी है (देखें चित्र क्र. 90)। मन्दिर के प्रवेश की सीढ़ियों के पास, दोनों ओर एक-एक सुन्दर लघु मन्दिर है। प्रवेशद्वार का सिरदल भी लम्बा और ऊँचा है। उसका उत्कीर्णन पौराणिक आख्यान सम्बन्धी घटनाओं से किया गया है जो कि उसे भव्यता प्रदान करता है। दोनों ओर दो द्वारपाल त्रिभंग मुद्रा में हैं और रत्नों से भूषित हैं। मन्दिर की कुर्सी लगभग साढ़े पाँच फुट ऊँची है। उस पर गजस्तर, अश्वस्तर (हाथीघोड़ों की कतारें) आदि उत्कीर्ण हैं । करीब 710 फुट की लम्बाई में 2000 के लगभग हाथी उनपर आसीन व्यक्तियों सहित उत्कीर्ण हैं। उनके ऊपर शार्दूल या सिंहों की कतारें हैं। फिर सुन्दर-सी बॉर्डर है। उसके बाद घुड़सवारों का अंकन है। फिर एक बॉर्डर है । फिर लंका-विजय के दृश्य लगभग 700 फुट में प्रदर्शित हैं । नर्तक-दल और हंसों की पंक्तियाँ भी इसी भाँति
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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