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________________ हलेबिड | 205 खिलजी ने राजधानी को लूटा और नष्ट किया। तत्कालीन नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। उसके बाद मुहम्मद तुगलक ने 1326 ई. में आक्रमण कर इस राज्य का अन्त ही कर दिया।) होयसलनरेश बिट्टिग या बिट्टिदेव या विष्णुवर्धन का जीवन विवादास्पद है। एक मान्यता यह है कि (1) वह जैन था किन्तु रामानुज के प्रभाव से वैष्णव हो गया था। (2) दूसरा मत यह है कि वह जीवन भर जैन धर्म का ही अनुयायी बना रहा। वैष्णव धर्म में दीक्षित होने के सम्बन्ध में बिट्टिदेव की स्थिति का परीक्षण डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने अपनी पुस्तक 'प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ' (ज्ञानपीठ प्रकाशन) में तर्कसंगत ढंग से इस प्रकार किया है-"उत्तरकालीन वैष्णव किंवदन्तियों के आधार से आधुनिक इतिहास-पुस्तकों में यह लिखा पाया जाता है कि वैष्णवाचार्य रामानुज ने इस राजा के समक्ष जैनों को शास्त्रार्थ में पराजित करके राजा को वैष्णव बना लिया था, परिणामस्वरूप राजा ने अपना नाम विष्णुवर्धन रख लिया, जैनों पर अत्याचार किये, उनके गुरुओं को पानी में पिलवा दिया, श्रवणबेलगोल के बाहुबली की मूर्ति को तथा अनेक जैन मूर्तियों और मन्दिरों को तुड़वा दिया, उनके स्थान में वैष्णव मन्दिर बनवाये और वैष्णव धर्म के प्रचार को अपना प्रधान लक्ष्य बनवाया था। किन्तु यह सब कथन सर्वथा मिथ्या, अयथार्थ एवं भ्रमपूर्ण है। रामानुजाचार्य चोल राज्य के अन्तर्गत श्रीरंगम के निवासी विशिष्टाद्वैती दार्शनिक थे। उन्होंने श्रीवैष्णव मत के नाम से मध्यकालीन वैष्णव धर्म का आविर्भाव किया, उस मत के पुरस्कर्ता एवं समर्थ प्रचारक वह थे, इतना तो सत्य है। परन्तु वह स्वयं ही धार्मिक अत्याचार के शिकार थे। चोलनरेश अधिराजेन्द्र कट्टर शैव था। उसके पूर्वजों के समय में तो रामानुज जैसे-तैसे रहे किन्तु वह स्वयं इन पर अत्यन्त कुपित था और उसी के अत्याचारों से पीड़ित होकर रामानुज अपनी जन्मभूमि से किसी तरह प्राण बचाकर भागे थे। राज्य का उत्तराधिकारी कुलोत्तग चोल जैनधर्म का पोषक था। अतएव उसके समय में भी वह वापस स्वदेश न जा सके और घूमते-घूमते अन्ततः कर्णाटक में उन्होंने इस नवोदित एवं शक्तिशाली नरेश बिट्टिदेव (विष्णुवर्धन) की शरण ली। यह घटना 1116 ई. के लगभग की है। उस समय तक रामानुज पर्याप्त वृद्ध हो चुके थे। विष्णुवर्धन विद्वानों का आदर करनेवाला, उदार, सहिष्णु और समदर्शी नरेश था। उसने इन आचार्य को शरण दी, अभय और प्रश्रय भी दिया। सम्भव है कि उसकी राजसभा में कतिपय जैन विद्वानों के साथ रामानुज के शास्त्रार्थ भी हुए हों, इनको विद्वत्ता से भी राजा प्रभावित हुआ हो, और इन्हें अपने राज्य में स्वमत का प्रचार करने की छूट भी उसने दे दी हो। एक-दो विष्णु मन्दिर भी राजधानी द्वारसमुद्र में उस काल में बने और उनके निर्माण में राजा ने भी द्रव्य आदि की सहायता दी हो, यह भी सम्भव है। यह सब होते हुए भी होय्सलनरेश ने न तो जैनधर्म का परित्याग ही किया, न उस पर से अपना संरक्षण और प्रश्रय ही उठाया और न वैष्णव धर्म को ही पूर्णतया अंगीकार किया-उसे राजधर्म घोषित करने का तो प्रश्न ही नहीं था। राजा का मूल कन्नडिग नाम बिट्टिग, बिट्टिदेव या बिटिवर्धन था जिसका संस्कृत रूप 'विष्णुवर्धन' था। यह नाम उसका प्रारम्भ से ही था, रामानुज के सम्पर्क या तथाकथित प्रभाव में आने के बहुत पहले से था, अन्यथा स्वयं जैन शिलालेखों में उसका उल्लेख इस नाम से न होता।"
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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