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धर्मस्थल | 193
मनोज्ञ प्रतिमा है। उसका भामण्डल किरणों के रूप में है । गर्भगृह के अन्दर जाना मना है। बसदि में प्रवेश के दाईं ओर बाहर के प्रदक्षिणापथ में 'श्री माता पद्मावतीजी' लिखा है । उनका मन्दिर मुखमण्डप सहित है और अलग है।
चन्द्रनाथ स्वामी मन्दिर के सामने साधु-संन्यासियों के लिए सुनिर्मित एक भवन है।
धर्मस्थल की महत्ता
इसके बारे में स्वामी परमहंस शेषाचार्य ने 'श्री धर्मस्थल क्षेत्र परिचय' (अंग्रेज़ी) नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि ईश्वर में विश्वास करने वाले और अन्य धर्मों का भी आदर करने वाले सभी धर्मों के लोग यहाँ आते हैं। वे लिखते हैं
“Dharmasthala is a holy Kshetra that attracts Jains, Hindus, Christians and Muslims too who come there for amelioration of their ailments in some form or other. It goes to the credit of the institution unlike others that it serves devotees without any distinction of class or creed. It is also unique in settling civil disputes between the people. The Heggade of Dharmasthala settles such disputes more than any court established for dispensation of civil justice. A devotee visiting Dharmasthala must be a believer in supernatural powers. He must respect the Gods and Goddesses of Jains and Hindus, the Dharma Devas, and also the Heggade of Dharmasthala whose family established and built the institution of Dharmasthala with all its reputation." (अर्थात् धर्मस्थल एक ऐसा पवित्र क्षेत्र है जो जैन, हिन्दू, ईसाई यहाँ तक कि मुसलमानों का भी श्रद्धास्थल बन गया है। यहाँ सभी अपनी दैहिक एवं मानसिक व्याधियों का उपचार प्राप्त करने आते हैं। इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि यहाँ जाति या धर्म का कोई भेदभाव नहीं है। एक विलक्षणता यह भी है कि यहाँ पारस्परिक कलह तथा दीवानी एवं फौजदारी झगड़ों का न्यायसम्मत निबटारा होता है। यहाँ के धर्माधिकारी इस प्रकार से न्याय और समाधान करते हैं कि वैसा कोई अन्य क्या करेगा ! यहाँ आने वाला यात्री सहज ही एक अदृश्य शक्ति की सत्ता में विश्वास करने लगता है । वह यहाँ के जैन और हिन्दू देवी-देवताओं को मानता है, साथ ही, धर्मस्थल के हैगड़े-परिवार को जिसने कि इस क्षेत्र की स्थापना, इसकी समृद्धि और इसकी कीर्ति के विस्तार में प्रभूत योगदान दिया है।)
जैनधर्म एकांगी धर्म नहीं है, वह अनेकांतवादी है। हठधर्मिता से कोसों दूर, धर्म के कारण नृशंसताओं के कलंक से रहित यह धर्म सदा ही समदर्शी, सहिष्णु और सर्वोदयी रहा है । उसके आचार्यों की रचनाओं में एवं भक्तिपाठ में भी यही भावना नित्यप्रति लक्षित होती है। कुछ उदाहरण हैं
__ 1. जिनसेनाचार्य द्वितीय ने ऋषभदेव को अपने सहस्रनामस्तोत्र में 'शिव' कहा है। उक्ति है-"युगादिपुरुषो ब्रह्मा पंचब्रह्ममयः शिवः।" एक अन्य ग्रन्थ में शिव का लक्षण इस प्रकार बताया है : “शिवं परं कल्याणं निर्वाणं ज्ञानमक्षयम्, प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परिकीर्तितः।" अर्थात् परम कल्याणरूपी सुख (निर्वाण) और अक्षय ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त कर जिसने मुक्तिपद पा लिया है, वह शिव है।