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________________ 186 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) धूप जलाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे। अपना घर भी उन्होंने अन्यत्र बना लिया। एक दिन फिर वे देवता उनके स्वप्न में आये और कहने लगे : “हम कालराहु (Kalarahu), कलक (Kalarkai), कुमारस्वामी और कन्याकुमारी हैं। हमारे मन्दिर बनवाओ और उत्सवों का आयोजन करो। हमारा कार्य अण्णप्पा (देव) करेंगे। तुम दो कुलीन व्यक्तियों को नियुक्त करो जो पूजनादि करते-कराते रहें। अगर श्रद्धापूर्वक ये कार्य किए गए तो तुम्हें धन की कभी कमी नहीं होगी और तुम्हारी पीढ़ियों तक अर्थ और कीति का कार्य अक्षुण्ण जारी रहेगा। हम तुम्हारी रक्षा करेंगे।" हेग्गड़े दम्पती ने वैसा ही किया और धर्मदेवों की भी आराधना तथा उत्सव का आयोजन होने लगा। जब उन्होंने ब्राह्मणों को उत्सवों के समय पूजा के लिए आमन्त्रित किया तो ब्राह्मणों ने यह कहकर इंकार कर दिया कि वे, देवों के साथ-साथ भगवान की पूजा हो, तभी आ सकते हैं। इस पर धर्मदेवों ने अण्णप्पा को कदरी नामक स्थान से लिंगम (शिवलिंग) मँगवाया और उसे वहाँ स्थापित करवा दिया जहाँ आजकल श्रीमंजुनाथ स्वामी का मन्दिर है। कहा जाता है कि यह बोधिसत्व मंजुघोष जैनों और हिन्दुओं में शिव का प्रतिरूप है। (स्मरण रहे, भगवान ऋषभदेव के 1008 नामों में शिव भी एक नाम है। कुछ विद्वान शिव और ऋषभदेव को एक ही मानते हैं। वैदिकधारा के 'शिवपराण' में ऋषभदेव को शिव का एक अवतार माना गया है। इस पुराण में जैनधर्म पर एक पूरा अध्याय ही है।) जो भी हो, इस दानी गाँव (कुडुमा) में श्री चन्द्रनाथ स्वामी, श्री मंजुनाथ (शिव), चार देवों और अण्णप्पा देव इन सबकी पूजा होने लगी। यहीं से प्रारम्भ हुआ इस अनूठे धर्म-संगम का धर्मस्थल रूप । सन् 1432 ई. में जब बिरमन्न पेर्गडे की मृत्यु हो गई, तब उनके उत्तराधिकारी पद्मय्या हेग्गडे ने कल्लुरतय (Kallurthaya) नामक एक अन्य देवता की मूर्ति भी यहाँ के मन्दिर में स्थापित की। कहा जाता है कि यह देवता भक्तों के कल्याण में अण्णप्पा का दाहिना हाथ है। सोलहवीं शताब्दी में सोदे (आधुनिक स्वादी) नामक स्थान के वादिराज मठ के श्री वादिराज यहाँ आये । हेग्गडे परिवार ने उनसे शिक्षा ग्रहण करने का जब आग्रह किया तो उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि जहाँ मंजुनाथ की प्रतिमा देवों द्वारा स्थापित की गई हो, वे भिक्षा नहीं लेंगे। हेग्गडे ने इस पर उनसे प्रतिमा का संस्कार करने के लिए कहा। ऐसा ही किया गया। वादिराज स्वामी उत्सव और दान से प्रसन्न हए और उन्होंने इस स्थान का नाम 'धर्मस्थल' रख दिया। अब कुडुमा धर्मस्थल हो गया। सन् 1903 में मल्लरमाडि गाँव को कुडुमा में मिलाकर धर्मस्थल नाम सरकारी काग़ज़ों में भी दर्ज कर दिया गया। तब से आज तक हेग्गडे परिवार इसे सार्थक धर्मस्थल बनाने और दानशीलता का क्षेत्र अधिक से अधिक विस्तार करने में तन-मन-धन से निरन्तर लगा रहता है। उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में कुछ गड़बड़ी हुई तो गवर्नर जनरल ने आदेश निकाला कि धर्मस्थल के मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जाए। मैसूर के महाराजा ने भी यहाँ आकर और मैसूर में भी हेग्गडे-जन का स्वागत किया। सन् 1830 ई. से 1955 ई. तक हेग्गडे वंशजों ने यहाँ के मन्दिरों में अनेक निर्माणकार्य करवाए और अनेक सार्वजनिक कार्यों जैसे स्कूल, प्रदर्शनियाँ तथा सर्वधर्म-सम्मेलन की
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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