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________________ धर्मस्थल | 185 घाट पर नहाकर वहाँ स्थित छोटी-छोटी दुकानों से पूजा की सामग्रो खरीदकर धर्मस्थल की यात्रा करते हैं। धर्मस्थल पहुँचने पर सबसे पहले लगभग तीस फीट ऊँचा महाद्वार आता है। इसका निर्माण 1966 में स्व० श्री रत्नवर्मा हेग्गडे ने कराया था। उसमें सबसे ऊपर दोनों ओर शिव की मूर्तियाँ बनी हैं। दोनों ओर दो गुमटियाँ हैं, उनमें भी शिव (मंजुनाथ) प्रतिष्ठित हैं। महाद्वार से सभी सरकारी या पर्यटक बसें अन्दर तक आती हैं। वहाँ उनका जमघट देखा जा सकता है। एक विशाल सरकारी बस-स्टैण्ड है जिसमें पूछताछ केन्द्र, अमानती सामान-घर, समय-सारणी आदि सभी सुविधाएँ हैं । यहीं दूर तक अर्थात् मंजुनाथ मन्दिर तक लगभग सौ दुकानें या होटलें नजर आती हैं। एक प्रकार से पूरा बाजार ही है। धर्मस्थल क्षेत्र का एक पूछताछ कार्यालय (enquiry office) भी है जहाँ से यात्रियों के ठहरने और भोजन आदि की व्यवस्था की जाती है। जैन यात्री श्री वीरेन्द्र हेग्गडे जी के निवास स्थान (वसन्त महल जो कि मंजुनाथ मन्दिर के सामने ही है) पर उनके निजी सचिव से ठहरने आदि के लिए अनुरोध कर सकते हैं । श्री हेग्गडेजी और उनका परिवार दिगम्बर जैन धर्म का अनुयायी है। साथ ही, विगत पाँच सौ वर्षों से वह सर्वधर्म-समन्वय और सहिष्णुता का स्मरणीय कार्य करता आ रहा है। धर्मस्थल में धर्मशालाएँ आधुनिक ढंग की बनी हैं और विशाल होने के साथ-साथ स्नानागार आदि आधुनिक सुविधाओं से सज्जित कमरों से युक्त हैं। इनमें ठहरने और क्षेत्र की भोजनशाला में यात्रियों को भोजन कराने का कोई शुल्क नहीं लिया जाता। धर्मशालाओं के नाम हैं-नर्मदा, गोदावरी, गंगा, शरावती, नेत्रावती, वैशाली आदि। जैनधर्म सम्बन्धी स्मारकों (बाहुबली प्रतिमा, मन्दिरों आदि) का वर्णन करने के बाद इस स्थान के अन्य मन्दिरों एवं कार्यकलाप पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाएगा। इससे पहले इस क्षेत्र के निर्माण का कुछ इतिहास भी जान लेना आवश्यक है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि धर्मस्थल क्षेत्र का इतिहास लगभग पाँच सौ वर्ष पुराना है। पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मल्लारमाडि नामक गाँव में एक जैनधर्मी सामन्त परिवार 'नेल्याडि बीड' (आज भी है) नामक अपने निवास-स्थान में रहता था। गृहस्वामी का नाम बिरमन्न पेर्गडे तथा गृहस्वामिनी का नाम अम्मुदेवी बल्लती था। उन्होंने अपने निवास स्थान के पास चन्द्रनाथ स्वामी बसदि (आज भी है) का निर्माण कराया था। वे दोनों इतने दानशील थे कि यह स्थान 'कुडुमा' (Kuduma) कहलाने लगा। इस शब्द का अर्थ है-वह स्थान जहाँ दान की ही प्रधानता हो। ____ कहा जाता है कि एक दिन 'धर्मदेव' मानवों के रूप में अश्वों और हाथियों पर अपने लवाजमे के साथ नेल्याडि बीडु आये । उनका इस दम्पती ने खूब स्वागत-सत्कार किया और दान दिया। प्रसन्न होकर देवों ने कहा, "पेर्गडे (हेग्गडे) ! हम तुम्हारी दानशीलता पर प्रसन्न हैं । तुम अपना यह निवास-स्थान हमें दे दो और हमारी पूजा करो, अपना निवास अन्यत्र बना लो तो हम तुम्हें असीमित धन और समृद्धि प्रदान करेंगे।" दोनों पति-पत्नी दीप
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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