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________________ कर्नाटक में जैन धर्म | 23 कृष्ण तृतीय के पौत्र और गंगनरेश मारसिंह के भानजे राष्ट्रकूट वंशी इन्द्र चतुर्थ की मारसिंह ने सहायता की, उसका राज्याभिषेक भी कराया। श्रवणबेलगोल के शिलालेखानुसार, मारसिंह ने 974 ई. में बंकापुर में समाधिमरण किया । इन्द्रराज भी संसार से विरक्त हो गया था और उसने भी 982 ई. में समाधिमरण किया। इस प्रकार राष्ट्रकूट वंश का अन्त हो गया । इस वंश के समय में लगभग 250 वर्षों तक जैनधर्म कर्नाटक का सबसे प्रमुख एवं लोकप्रिय धर्म था। कलचुरि वंश चालक्य वंश के शासन को इस वंश के बिज्जल कलचुरि नामक चालुक्यों के ही महामण्डलेश्वर और सेनापति ने 1156 ई. में कल्याणी से समाप्त कर दिया। लगभग तीस वर्षों तक अनेक कलचरि राजाओं ने कल्याणी से ही कर्नाटक पर शासन किया। कलचुरियों का शासन मुख्य रूप से वर्तमान मध्यभारत, महाकोसल एवं उत्तरप्रदेश में तीसरी सदी से ही था। इनके सम्बन्ध में डॉ. ज्योति प्रसादजी का कथन है कि अनुश्रुतियों के अनुसार इस वंश का आदिपुरुष कीर्तिवीर्य था, जिसने जैन मुनि के रूप में तपस्या करके कर्मों को नष्ट किया था। 'कल' शब्द का अर्थ कर्म भी है और देह भी। अतएव देहदमन द्वारा कर्मों को चूर करने वाले व्यक्ति के वंशज कलचरि कहलाये। इस वंश में जैनधर्म की प्रवृत्ति भी अल्पाधिक बनी रही। प्रो० रामास्वामी आयंगार आदि अनेक दक्षिण भारतीय इतिहासकारों का मत है कि पांचवीं-छठी शती ई. में जिन शक्तिशाली कलभ्रजाति के लोगों ने तमिल देश पर आक्रमण करके चोल, चेर तथा पाण्ड्य नरेशों को पराजित करके उक्त समस्त प्रदेश पर अपना शासन स्थापित कर लिया था वे प्रतापी कलभ्र नरेश जैनधर्म के पक्के अनुयायी थे। यह सम्भावना है कि उत्तर भारत के कलचुरियों की ही एक शाखा सुदूर दक्षिण में कलभ्र नाम से प्रसिद्ध हुई और कालान्तर में उन्हीं कलभ्रों की सन्तति में कर्णाटक के कलचुरि हुए। आयंगार के ही अनुसार, कलचुरि शासक बिज्जल भी "अपने कुल की प्रवृत्ति के अनुसार जैनधर्म का अनुयायी था। उसका प्रधान सेनापति जैनवीर रेचिमय्य था। उसका एक अन्य जैन मन्त्री ब्राह्म बलदेव था जिसका जामाता बासव भी जैन था ।" इसी बासव ने जैनधर्म और अन्य कुछ धर्मों के सिद्धान्तों को सममेलित कर 'वीरशैव' या लिंगायत' मत चलाया (इस आशय का एक पट्ट भी 'कल्याणी' के मोड़ पर लगा है। देखिए जैन राजधानी 'कल्याणी' प्रकरण)। जो भी हो, बिज्जल और उसके वंशजों ने इस मत का विरोध किया किन्तु वह फैलता गया और जैनधर्म को कर्नाटक में उसके कारण काफी क्षति पहुँची । कहा जाता है कि बिज्जल ने अपने अन्त समय में पुत्र को राज्य सौंप दिया और अपना शेष जीवन धर्म-ध्यान में बिताया। सन् 1183 ई. में चालुक्य सोमेश्वर चतुर्थ ने कल्याणी पर पुनः अधिकार कर लिया और इस प्रकार कलचुरि शासन का अन्त हो गया। अब्लूर नामक एक स्थान के लगभग 1200 ई. के शिलालेख से ज्ञात होता है कि वीरशैव आचार्य एकान्तद रामय्य ने जैनों के साथ विवाद किया और उनसे ताड़पत्र पर यह शर्त लिखवा ली कि यदि वे हार गए तो वे जिनप्रतिमा के स्थान पर शिव की प्रतिमा स्थापित करेंगे। कहा जाता है कि रामय्य ने अपना सिर काटकर पुनः जोड़ लिया। जैनों ने जब शर्त का पालन करने से इनकार किया तो उसने सैनिकों, घुड़सवारों के होते हुए भी हलिगेरे (आधुनिक लक्ष्मेश्वर) में जैन मूर्ति आदि को फेंककर जिनमन्दिर के स्थान पर वीरसोमनाथ शिवालय बना दिया। जैनों ने राजा बिज्जल से इसकी शिकायत की तो राजा ने जैनों को फिर वही शर्त लिख
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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