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________________ 176 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) है। इसी प्रकार प्रतिमा के दोनों ओर पाषाण के खम्भे भी बनाए गए हैं जिन पर अभिषेक के समय मंच बनाया जाता है। ऐसा जान पड़ता है कि मूर्ति को सहारा देने के लिए मूर्ति के पादतल से घुटने तक एक पाषाण-फलक खड़ा किया गया है । इसी फलक के सामने के भागों में, दोनों ओर एक-एक सर्प तीन फण ऊपर उठाए मूर्ति के घुटनों तक दिखाए गए हैं। उनके नीचे भी बाँबी तथा सर्प प्रदर्शित हैं । बाहुबली के शरीर पर लताएँ दोनों पैरों के बीच में से (एड़ी से) ऊपर उठकर घुटनों से होते हुए जाँघों पर चढ़ती दिखाई गई हैं। घुटनों से ऊपर लता के पत्तों का अंकन बहुत स्पष्ट है । लताएँ हाथों पर दो लपेटन देती हुई कंधों के जोड़ों तक गई हैं। बाहुबली के उदर पर तीन वलय अंकित किए गए हैं जो मूर्ति को स्वाभाविकता प्रदान करते हैं । मूर्ति के कान लम्बे हैं, वे भुजा को स्पर्श करते हैं। मूर्ति पर सहज मुस्कान का भाव झलकता है। यह काले पाषाण की है। अपने निर्माण के प्रारम्भिक वर्षों में वह बहुत सुन्दर रही होगी किन्तु अब उस पर हवा और पानी का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। स्मरण रहे, यहाँ वर्षा बहुत अधिक होती है। यही कारण है कि मूर्ति इस समय कहीं काली, कहीं मटमैली और कहीं सफेद- सी नज़र आती है। मूर्ति के बायीं ओर तथा दायीं ओर शिलालेख हैं। दायीं ओर के शिलालेख में उल्लेख है कि चामुण्डराय के वंशज तिम्मराज ने एनूर में भुजबली (बाहुबली) नामक जिनेश्वर प्रतिमा शक संवत् 1525 (1604 ई.) में स्थापित की। यह तिम्मराज पाण्ड्यनरेश का छोटा भाई, पाण्ड्यक रानी का पूत्र तथा रायकवर का जामाता था। उसने इस मति की स्थापना बेलगुल (श्रवणबेलगोल) के भदारक (देशीगण) चारुकीति के आदेश से एनर (वेणर) में की। बायीं ओर के शिलालेख में भी यह उल्लेख है कि इसकी स्थापना तिम्मराज ने की थी और वह सोमवंश का धुरीण तथा पुंजलिके का शासक था। यहाँ बाहुबली के लिए 'गुम्मटेश' का प्रयोग किया गया है। यहाँ प्रतिवर्ष मार्च (फाल्गुन पूर्णिमा) में रथोत्सव होता है जो पाँच दिनों तक चलता है। उस समय बाहुबली की छोटी धातु-प्रतिमा का उपयोग अभिषेक के लिए किया जाता है । इस अवसर पर लकड़ी के सुन्दर रथ का प्रयोग किया जाता है। मूर्ति वाले चबूतरे से चारों ओर हरी-भरी पहाड़ियाँ, पेड़-पत्तीहीन काली ठोस विशाल शिलाएँ, कभी-कभी दूर-दूर की इन शिलाओं से भी नीचे तैरते बादल और प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की मन को प्रसन्न करने वाली झलक मिलती है। मूर्ति के सामने से प्रसिद्ध कुद्रेमुख पहाड़ी भी दिखाई देती है। (कन्नड़ में कुद्रे का अर्थ होता है घोड़ा । पहाड़ी के इस प्रकार के आकार के कारण यह नाम पड़ा होगा।) बाहुबली-मूर्ति के कारण युद्ध-यह तो स्पष्ट ही है कि यह मूर्ति वहीं पर स्थित किसी चट्टान को ही तराश कर नहीं बनाई गई है। अनुश्रुति है कि इसका निर्माण वर्तमान स्थल से छह-सात किलोमीटर की दूरी पर कल्याणी नामक स्थान पर हुआ था। अपनी कीर्ति अमर करने और अपनी बराबरी का या ऊँचा कोई दूसरा न हो इस प्रकार की ईर्ष्या मनुष्य से क्या नहीं करा लेती ? ऐसी ही ईर्ष्या का कारण बनी वेणूर की यह विशालकाय भजबली (बाहबली) की मति । श्रवणबेलगोल की प्रसिद्ध बाहबली मति के निर्माता चामुण्डराय के ही सम्भवत: वंशज वेणूर के शासक तिम्मराय ने भी बाहुबली की विशाल मूर्ति
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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