SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूडबिद्री | 161 भार से लचकती हुई, क्षीण कटिवाली नारियाँ किसके चित्त में प्रेम का संचार नहीं करतीं। सज्जनों का समय काव्यशास्त्र की चर्चा में (काव्यशास्त्र विनोदेन) व्यतीत होता है इस उक्ति को सार्थक करने वाले विद्वानों से तथा हीरा, पन्ना, मोती आदि बहुमूल्य रत्नों एवं रेशम आदि बहुमूल्य वस्त्रों के विक्रेताओं से यह नगर सुशोभित है।" क्षेत्र का इतिहास मूडबिद्री क्षेत्र का इतिहास भी अत्यन्त प्राचीन जान पड़ता है । भगवान पार्श्वनाथ ने अपने मुनि-जीवन के 70 वर्षों में घूम-घूमकर जैन-धर्म का उपदेश दिया था। उनका विहार दक्षिण में भी हआ था। वे नाग जाति की एक शाखा उरगवंश के थे (उरग का अर्थ भी सर्व होता है)। डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का मत है : "उनके समय में पूर्व, पश्चिम और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नाग-सत्ताएँ राजतन्त्रों अथवा गणतन्त्र के रूप में उदित हो चकी थीं और इन लोगों के इष्ट-देवता पार्श्वनाथ ही रहे प्रतीत होते हैं।" तुलनाडु और समीपवर्ती केरल में नाग-पूजा और पार्श्वनाथ की अत्यधिक मान्यता, उनके यक्ष धरणेन्द्र और यक्षी पद्मावती के मन्दिर या सम्बन्धित चमत्कार सम्भवतः इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। - भगवान महावीर के अनुयायी जैन राजाओं में हेमांगद देश (कर्नाटक में स्थित) के जीवन्धर और साल्वदेश के राजा का भी नाम आता है। इसके सम्बन्ध में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' नामक ग्रन्थ में लिखा है : “दक्षिण भारत के राजाओं में सालव नामक एक राजवंश का उल्लेख मिलता है। साल्वमल्ल जिनदास तुलुवदेश पर शासन करते थे।" स्वयं महावीर स्वामी ने भी दक्षिण में विहार किया था। __ श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य का श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर आगमन और तपस्या सम्बन्धी वृत्तान्तों और शिलालेखों से ज्ञात होता है कि बारह हज़ार मुनियों के संघ में से केवल आचार्य भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त ही इस गिरि पर रह गए थे और शेष मुनियों को दक्षिण भेज दिया गया था । सम्भव है कुछ मुनियों का इस ओर भी विहार हुआ हो । यह घटना ईसा पूर्व 365 से पहले की है जब आचार्य भद्रबाहु ने शरीर त्यागा था। ईसा की दूसरी सदी में करहाटक (महाराष्ट्र) में कदम्ब नामक राजवंश की स्थापना हुई। उसके उत्तराधिकारी मयूरवर्मन् (चौथी सदी) ने अपनी राजधानी बनवासि (कर्नाटक) में स्थानान्तरित की। उसका एक उत्तराधिकारी काकुत्स्थवर्मन् जैनधर्म का पोषक था। उसका पुत्र मृशेवर्मन् (450-478 ई.) भी जैन धर्म का अनुयायी और जैन गुरुओं का आदर करने वाला शासक था। सम्भवतः इन्ही शासकों के समय में अर्थात् ईसा की पांचवीं सदी में तुलनाडु पर इस जिनभक्त वंश का आधिपत्य हो गया था। मूडबिद्री सम्बन्धी एक अनुश्रुति का सम्बन्ध सातवीं शताब्दी से बताया जाता है। उस समय मूडबिद्री में जैनधर्म प्रतिपालकों का अभाव हो गया था और यहाँ घना जंगल दृश्यमान था। उस सदी में श्रवणबेलगोल से एक मुनिराज का इस क्षेत्र में विहार हुआ। इस स्थान पर पहुँचकर उन्होंने एक जगह (जहाँ इस समय सिद्धान्त बसदि है) एक अपूर्व दृश्य-एक सिंह और एक गाय को एक साथ विचरण करते-जब देखा तो उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि इस
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy