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________________ 150 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक) हारी है, विशेषकर सौ दलों वाला एक ही पुष्प । प्रतिमाओं को विशेष ध्यान से देखने पर, विशेषकर उनके अन्तर से दिखनेवाले द्वार आदि आश्चर्यकारी हैं। मन्दिर के पूर्व में नीचे रामसमुद्र नामक तालाब दिखाई देता है और आगुम्बे घाटी तथा चारमाडि पहाड़ियों का सुहावना दृश्य आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो जाता है। कारकल के गोम्मटेश श्रवणबेलगोल की 57 फुट ऊँची बाहुबली प्रतिमा वहाँ के पहाड़ की एक चट्टान को काटकर बनाई गई है लेकिन कारकल के गोम्मटेश की मूर्ति (देखें चित्र क्रमांक 68) का निर्माण अपने वर्तमान स्थान से लगभग एक कि. मी. की दूरी पर हुआ था और उसे वहाँ से वर्तमान पहाड़ी पर लाकर स्थापित किया गया था। प्रतिमा के निर्माण का इतिहास बड़ा दिलचस्प है। गोम्मटेश की मूति को प्रतिष्ठा ई. सन् 1436 में हुई थी। एक विदेशी कलाविद् वालहाउस ने लिखा है कि इस मूर्ति को देखकर उन्हें परियों की कहानी याद आ जाती है कि किस प्रकार उनका क़िला था, उसका परकोटा और आसपास के प्राकृतिक दृश्य थे । यहाँ की पहाड़ी, मूर्ति और परकोटा तो यह भावना जगाते ही हैं, उसके निर्माण की रोचक कहानी कोई भी बड़े चाव से सुन और सुना सकता है। हमें इसका विवरण चदुरचन्द्रभ नामक कन्नड़ कवि की रचना 'कार्कलद गोमटेश्वर चरिते' (रचना-काल 1646 ई.) में प्राप्त होता है । कवि स्वयं इसी तुलनाडु प्रदेश का निवासी था। उसे यहाँ के शासक भैरव राय का भो आश्रय प्राप्त था। सन् 1418 ई. में राजा भैरवराय का पुत्र (युवराज) वीर पाण्ड्य भैररस उत्तर देश की यात्रा करके जब श्रवणवेलगोल पहुंचा तो वहाँ की बाहुबली मूर्ति के दर्शन कर अत्यन्त आनन्द विभोर हुआ। वहीं उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि वह भी ऐसी ही प्रतिमा का निर्माण कारकल में करायेगा। सन् 1432 ई. में वह राज्य सिंहासन पर बैठा और अपनी कीति अजरअमर करने के लिए उसने मूर्ति-निर्माण का कार्य प्रारम्भ करवा दिया। राजा को अपने महल के बाईं ओर, पार्श्व में ही, तत्काल एक उन्नत शिला दिखाई पड़ी। वह भट्टारक ललितकीर्ति को अपने साथ लेकर शिला दिखाने के लिए निकल पड़ा । ललितकीर्ति के यह कहने पर कि वे जहाँ आये हैं वहाँ की वज्रशिला से गोम्मटेश मूर्ति का निर्माण किया जा सकता है, राजा ने तत्काल शिला की पूजा की और इस प्रतिमा के निर्माण का कार्य समारोहपूर्वक शिल्पियों को सौंप दिया। राजा ने शिल्पियों को यह कहकर प्रोत्साहित किया कि उन्हें पुण्य और यश का भागी बनना चाहिए। उसके बाद भट्टारकजी ने शिल्पियों को बाहुबली की कथा सुनाई। शुभ मुहूर्त में राजज्योतिषी की सलाह पर यह कार्य प्रारम्भ करने से पहले राजा ने शिल्पियों को मुहूर्त-भेंट देकर संतुष्ट किया। मूर्ति-निर्माणकर्ताओं ने एक वर्ष तक तन्मयतापूर्वक परिश्रम श्रम करके मति का स्थल आकार तैयार कर लिया। अब यह समस्या उत्पन्न हई कि मति को वर्तमान पहाड़ी पर कैसे ले जाया जाए। (मूर्ति अपने वर्तमान स्वरूप में 42 फुट ऊँची और लगभग 80 टन वजन की है। अपनी अनगढ़ अवस्था में वह और भी वजनी तथा लम्बी रही होगी।) मूर्ति को खूब गठी हुई रस्सियों से बाँधा गया, और बीस पहियों की एक लम्बी गाड़ी बनाई गई। इस गाड़ी को खींचने में स्वयं राजा, दण्डनायक, सौभाग्यवती स्त्रियाँ, पुरुष और
SR No.090100
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1988
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size23 MB
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